खबर फिली – ओम पुरी ने अमिताभ बच्चन से क्यों कहा- अच्छा ही हुआ, आपने ‘अर्धसत्य’ नहीं की – #iNA @INA

साल 2016. जुलाई का महीना था. मैं दिल्ली की संगीत नाटक अकादेमी से निकल ही रहा था कि फोन की घंटी बजी. मैंने अभी कार स्टार्ट ही की थी. मैं रुक गया. फोन की स्क्रीन पर फ्लैश हुआ- ओम पुरी. मैंने फौरन फोन उठाया. उधर से ओम पुरी की परिचित आवाज आई- “आप चाहें तो अभी इंटरव्यू कर सकते हैं. मैं एक डबिंग के लिए स्टूडियो जा रहा हूं और वहां पहुंचने में मुझे एक घंटे से ज्यादा का वक्त लगेगा. आपको इतना ही समय चाहिए था ना? मैंने कहा- जी बिल्कुल ओम जी.दरअसल, मैं उन्हें पिछले कई दिनों से इंटरव्यू के लिए पकड़ना चाहता था. मैंने उन्हें कहा भी यही था कि इंटरव्यू तब करेंगे जब उनके पास कम से कम एक घंटे का समय हो.

खैर, मैंने कार को वापस पार्किंग में लगाया और कार में बैठे-बैठे ही वो इंटरव्यू शुरू हुआ. कहने के लिए तो हम फोन पर बातचीत कर रहे थे लेकिन उस पूरी बातचीत में लगा ही नहीं कि ओम जी मुंबई में हैं और मैं दिल्ली में. वो अपनी बातचीत से रेखाचित्र तैयार कर रहे थे. उनसे बातचीत करना किसी सिनेमा को देखने जैसा था. एक घंटे की बातचीत कब डेढ़ घंटे में बदल गई पता ही नहीं चला. ओम जी स्टूडियो पहुंच गए लेकिन बातचीत करते रहे. इस बातचीत के कुछ ही महीने बीते होंगे जब मैं पारिवारिक यात्रा पर जैसलमेर में था. वहीं पर उनके ना रहने की खबर मिली. आज भी कान में उनकी वो आवाज जिंदा है. वो बड़ा इंटरव्यू था लेकिन उसके कुछ हिस्से यहां साझा कर रहा हूं.

बहुत ही संघर्ष भरा था ओम पुरी का बचपन

मेरा पहला सवाल ओम पुरी के बचपन को लेकर था. उन्होंने बताना शुरू किया- मेरे बचपन की जो पहली बात मुझे याद है या पहला विजुअल मुझे याद है वो मेरे घर का है. उस वक्त मेरी उम्र यही कोई ढाई साल के करीब रही होगी. मुझे एक चारपाई याद है, जिस पर मेरे दोनों हाथ बांध दिए गए थे क्योंकि मुझे चेचक हुई थी. ऐसा इसलिए किया गया था कि मैं खुजली ना करूं, क्योंकि खुजली करने पर जख्म हो जाएगा. फिर कुछ दिन बाद मैंने एक तोते का बच्चा पकड़ लिया. मैंने उसके लिए ईंटों का घर बनाया. मैं उसको खाना खिलाता था.

एक दिन सुबह मैं उसे देखने गया, तो मैंने देखा कि कुत्तों ने उसका ईंट का घर गिरा दिया है और वो उसमें दब कर मर गया है. मुझे बहुत दुख हुआ, बड़ी तकलीफ हुई… मैं खूब रोया. उसके बाद मैं उस तोते को ले जाकर दफना कर आया. मैंने बाकायदा मिट्टी खोद कर उसे उसमें भीतर दबाया. उसी दौरान मेरी एक लड़के से दोस्ती हुई. उसके पिता रेलवे के ही कर्मचारी थे, जो सफाई का काम करते थे. मेरी मां ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी, बस गीता पढ़ना उन्हें आता था. वो छुआछूत करती थीं.

उनकी हालत ऐसी थी कि अगर घर से निकल रही हैं और बिल्ली ने रास्ता काट दिया तो वो कहीं नहीं जाती थीं. अगर घर से बाजार जा रही हैं और ऊपर से कहीं पानी का छींटा पड़ गया तो वो मान लेती थीं कि वो गंदे पानी का ही छींटा होगा. फिर वो घर लौट आती थीं. नहाती थीं, अपनी धोती को साफ करती थीं. अब उनके इस स्वभाव की वजह से होता ये था कि जैसे ही वो मुझे मेरे दोस्त के साथ खेलते देखती थीं मुझे पकड़ कर घर ले जाती थीं और फौरन मुझे नहलाया जाता था.

जब ओम पुरी पिता जी को हो गई थी जेल

बचपन को लेकर ही एक सवाल के जवाब में ओम पुरी बताते हैं- “मेरे पिता जी रेलवे स्टोर में काम करते थे. उस स्टोर से सीमेंट की 15-20 बोरियां चोरी हो गईं. पुलिस ने इस चोरी के आरोप में मेरे पिता जी को गिरफ्तार कर लिया. रेलवे वालों ने हमसे घर खाली करा लिया. मेरी मां ने लाख बार कहा कि मेरे दो छोटे छोटे बच्चे हैं, वो कहां जाएंगे… लेकिन रेलवे वालों ने एक भी बात नहीं सुनी. इसके बाद मेरी मां का और हम सभी का बुरा वक्त शुरू हो गया. मेरे पिता जी के जेल जाने के बाद रेलवे वाले हमारे ऊपर लगातार घर खाली कराने का दबाव बना रहे थे. मेरी मां हर बार कोशिश करती थीं कि उन्हें मोहलत मिल जाए.

रेलवे वालों को पता था कि मेरी मां छुआछूत बहुत करती हैं. उन्होंने मां की इसी आदत का फायदा उठाया. एक दिन रेलवे के सफाई कर्मचारी एक टोकरी में ढेर सारा कूड़ा लेकर मेरे घर चले आए. उसमें मल भी था. उन्होंने मां को डराया कि अगर वो घर खाली नहीं करेंगी तो वो सारा कूड़ा घर के सामने डाल कर चले जाएंगे. मेरी मां ने हार मान ली, उसने घर खाली कर दिया. इसके बाद उसने जाने कैसे एक छोटे से कमरे का इंतजाम किया.

मुझे मेरी मां ने एक चाय की दुकान पर लगा दिया, ये सोच कर कि कम से कम वहां मुझे खाना तो मिल ही जाएगा. मैं छोटा था इसलिए दुकानदार ने मुझे पानी की टंकी दिखाते हुए ये बताया कि मेरा काम सिर्फ चाय के ग्लास धोना है. मैं छोटा था चाय देने के लिए सड़क पार करने में खतरा था. कहीं किसी गाड़ी ने टक्कर मार दी तो क्या होगा, यही सोचकर दुकान के मालिक ने मुझे सिर्फ ग्लास धोने का काम दिया था.”

नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के शुरुआती दिन

ओम पुरी के बचपन के संघर्षों के बाद मैं उन्हें उनके अभिनय के दिनों पर ले गया. उन्होंने वो कहानी भी विस्तार से बताई- “सारी चुनौतियों के बाद भी मेरे दिमाग में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा चल रहा था. मैंने वहां एडमिशन के लिए अप्लाई किया और सेलेक्ट हो गया. जिसके बाद मैंने नौकरी छोड़ दी. सरकारी नौकरी छोडने पर मुझे बहुत लोगों ने समझाया. एनएसडी में 200 रुपये भी मिलते थे, उसी में कट टू कट सब मैनेज करते थे. तीन साल वहां पढ़ाई की, लेकिन बाहर निकलने के बाद अंधेरा दिखाई दिया.

मैंने पाया कि राजेंद्र नाथ, ओम शिवपुरी, श्यामानंद जालान जैसे लोग थे जो नियमित थिएटर करते थे, लेकिन उनकी रोजी रोटी कहीं और से थीं. सब के सब नौकरी करते थे. इससे उलट मैं एक्टर बनना चाहता था. नसीरूद्दीन शाह मेरे क्लासमेट थे. मुझे अपने बारे में कोई गलतफहमी नहीं थी. वो बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, श्याम बेनेगल, मृणाल सेन जैसे लोगों का जमाना था और मुझे पता था कि कमर्शियल सिनेमा मुझे एक्सेप्ट नहीं करेगा, पतला दुबला चेहरे पर चेचक का दाग. मुझे मर्सीडीज का शौक नहीं है, बंगले का शौक नहीं है.

पहले आर्ट फिल्में विदेशों में खूब दिखाई जाती थीं, उसकी वजह से पूरी दुनिया के चक्कर लग गए लेकिन आर्ट फिल्मों से घर नहीं खरीदा जा सकता. ‘जाने भी दो यारों’ के लिए मुझे 5000 रुपये मिले थे, ‘आक्रोश’ के लिए 9000 और ‘अर्धसत्य’ के लिए 25000. यानी इससे घर नहीं खरीदा जा सकता था इसलिए मैंने सोच समझकर कमर्शियल फिल्में भी की. बाद में मैंने अमिताभ बच्चन को एक दिन बोला कि अच्छा हुआ कि आपने अर्धसत्य नहीं की, वो मुस्कराने लगे.


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