दुनियां – जिस देश से पर्यावरण को है सबसे ज्यादा खतरा, वहां क्यों बुलाई COP29 की बैठक? – #INA

पिछले कुछ वर्षों से दुनिया ऐसी घटनाओं का सामना कर रही है, जो हमारे कल्पना से भी परे हैं. मौसम में बेतहाशा उतार-चढ़ाव, बाढ़, भयंकर गर्मी और तूफानों के कहर ने कई रिकॉर्ड तोड़े हैं. 2024 तो सबसे गर्म साल बनने की राह पर है. विशेषज्ञों का कहना है कि ये सारी घटनाएं जलवायु परिवर्तन, यानी क्लाइमेट चेंज यानी जलवायु परिवर्तन का परिणाम हैं.
जलवायु में हो रहे इन्हीं विनाशकारी बदलावों से बचने के उपायों पर चर्चा के लिए हर साल दुनिया की सबसे बड़ी और अहम बैठक बुलाई जाती है. इसे COP या कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज कहा जाता है. 2024 में 29वीं सालाना बैठक हो रही है. इसलिए इसे कहेंगे COP29. तो अगले दो हफ्तों तक इसकी चर्चा खूब सुनाई देने वाली है.
हालांकि, इस आयोजन से पहले ही इसे लेकर विवादों का सामना करना पड़ा है. दरअसल इस बार की मेज़बानी अजरबैजान कर रहा है, जो कैस्पियन सागर के तट पर स्थित एक छोटा सा देश है. यह सम्मेलन 11 नवंबर से 22 नवंबर तक अजरबैजान के राजधानी शहर बाकू में चलेगी.
कॉप29 क्या है?
COP संयुक्त राष्ट्र का एक संगठन है. लगभग 32 साल पहले 1992 में, 150 से अधिक देशों ने पृथ्वी को तपा रहे प्रदूषण में खतरनाक बढ़ोतरी को सीमित करने के लिए एक संयुक्त राष्ट्र संधि पर हस्ताक्षर किए थे. इसके तहत पहला कॉन्फ्रेंस 1995 में बर्लिन, जर्मनी में हुआ था. COP का फुल फॉर्म है- कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज
कॉप में पार्टीज का मतलब उन देशों से है, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र के जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. तब से लगभग हर साल जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन हो रहा है. हर साल होने वाले इस सम्मेलन का मकसद ये रहता है कि जलवायु परिवर्तन को कैसे सीमित किया जाए. उसके लिए तैयारी कैसे की जाए. इसमें दुनिया भर के नेता जलवायु परिवर्तन से निपटने के समाधान पर एकसाथ काम करने के लिए जुटते हैं.
इस बार का ऐजेंडा क्या है?
इस साल की बैठक का प्रमुख ऐजेंडा है पैसा.
जब पहली बार दुनियाभर के कई देश ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की कटौती करने पर सहमत हुए थे, जो कि जलवायु परिवर्तन का कारण है, वो 2015 में पेरिस में हुए COP21 सम्मेलन में हुआ था. 9 साल हो गए इस बात को.
करीब 200 देशों ने वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने और इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का संकल्प लिया था. संयुक्त राष्ट्र वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के खतरनाक असर को रोकने के लिए ये बेहद जरूरी है.
हालांकि वैज्ञानिकों का ये भी कहना है कि दुनिया इन लक्ष्यों को हासिल करने की राह पर नहीं है इसलिए और नीतियों को लागू करने के आवश्यकता है. इन्हीं नीतियों को लागू करने में लगेगा खूब सारा पैसा.
इसका समाधान निकालने के लिए सभी देशों ने तय किया था 2025 तक क्लाइमेट फाइनेंस के बारे में प्लान बनाया जाए. क्लाइमेट फाइनेंस को आसान शब्दों में कहें तो यह अधिक वित्तीय संसाधनों वाले देशों से ऐसे देशों के लिए वित्तीय सहायता है, जिनके पास कम वित्तीय संसाधन हैं और जो पर्यावरण के लिहाज से अधिक असुरक्षित हैं.
इस मदद यानी क्लाइमेट फाइनेंस का इस्तेमाल विकासशील देश क्लाइमेट चेंज के नकारात्मक असर को कम करने या अनुकूलन के लिए करते हैं. इस समय पूर्वी अफ्रीका के ऐसे कई देश है जिनकों फौरी तर मदद की दरकार है.
अजरबैजान से क्या दिक्कत है?
वैज्ञानिक ये कहते रहे हैं कि जलवायु संकट से निपटना है तो जीवाश्म ईंधनों यानी फॉसिल फ्यूल, जैसे कि तेल, गैस और कोयले से होने वाले उत्सर्जन में तेजी से कमी लानी होगी. मगर अजरबैजान का तेल और गैस के साथ नाता काफी पुराना रहा है. 1 करोड़ की आबादी वाला यह देश 1991 में अपनी आजादी के बाद से कैस्पियन सागर से तेल और गैस पर निर्भर रहा है. अकेले हाइड्रोकार्बन देश के निर्यात का 92% हिस्सा है.
एक नए आंकलन के तो मुताबिक अजरबैजान अगले एक दशक में एक तिहाई गैस उत्पादन बढाने की सोच रहा है. कोयले और तेल की ही तरह गैस भी एक जीवाशम ईंधन है. ये सभी जलवायु के लिए जिम्मेदार है क्योंकि ऊर्जा की जरूरतों के लिए इन्हें जलाने पर पृथ्वी को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसें पैदा होती हैं.
हालिया अनुमान के मुताबिक अजरबैजान अगर गैस उत्पादन के इस स्तर पर पहुंचेगा तो इससे 781 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड निकलेगा- जो यूके के वार्षिक कार्बन उत्सर्न से दो गुना से अधिक है!!
वहीं जीवाशम ईंधन से दूरी बरतने के तमाम दावे इस देश ने किए है. COP28 में 2050 तक उत्सर्जन को 40% तक कम करने का लक्ष्य तय करने के बावजूद अजरबैजान सरकार ने अभी तक डिटेल्ड प्लान सामने नहीं रखा है.
कुछ पर्यावरण कार्यकर्ता इसलिए नाखुश हैं कि ऐसा देश जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के सारे काम कर रहा हो उसे सम्मेलन की मेजबानी करने क्यों दिया जा रहा है? यही सवाल पिछले साल 2023 में भी पूछा गया था जब दुनिया के शीर्ष 10 तेल उत्पादक देशों में एक संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने COP28 की मेजबानी की थी.
विवाद की वजह एक ये भी है…
विरोधाभास केवल यही नहीं है. अज़रबैजान विश्व स्तर पर सबसे कम लोकतांत्रिक देशों में से एक है. जहां लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है और राजनीतिक विरोध तो तनिक भी बर्दाश्त नहीं किया जाता. इसकी एक झलक आपको इन आंकड़ों में मिल जाएगी.
इकोनॉमिस्ट डेमोक्रेसी इंडेक्स में अजरबैजान दुनिया भर में 130वें स्थान पर है और रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स रैंकिंग में 180 में से 164वें स्थान पर है. इस देश पर मौजूदा राष्ट्रपति इल्हाम अलीयेव के परिवार का पिछले 31 सालों से शासन है. इनके शासन के तरीके पर जिसने भी सवाल उठाए हैं वो अभी जेल में कैद है.
राष्ट्रपति इल्हाम अलीयेव COP29 को देश की छवि को सुधारने के एक अवसर के रूप में देखते हैं. वहीं मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी चिंताए जाहिर की गई हैं कि अजरबैजान देश की राष्ट्रीय तेल और गैस कंपनी में निवेश को बढ़ावा देने के लिए जलवायु सम्मेलन जैसे बड़े मंच का फायदा उठा रहा है.

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सौजन्य से टीवी9 हिंदी डॉट कॉम

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