देश- अशोक तंवर की आखिरी मिनट में ‘घर वापसी’, बीजेपी ही नहीं हुड्डा के लिए की भी बढ़ी टेंशन- #NA

अशोक तंवर के दलबदल से बीजेपी ही नहीं कांग्रेसी खेमे में बढ़ी टेंशन

हरियाणा विधानसभा चुनाव प्रचार के आखिरी दिन कल गुरुवार को पूर्व सांसद अशोक तंवर ने एक बार फिर से पार्टी बदल ली है. बीजेपी का दामन छोड़कर वो कांग्रेस में ‘घर वापसी’ कर गए हैं. महेंद्रगढ़ की रैली में अशोक तंवर को राहुल गांधी ने कांग्रेस में शामिल कराया. इस तरह वोटिंग से ठीक दो दिन पहले तंवर के सियासी पाला बदलने से बीजेपी के लिए झटका और कांग्रेस के लिए फायदा माना जा रहा है, हालांकि यह घटनाक्रम पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के लिए भी किसी टेंशन से कम नहीं है.

अशोक तंवर की कांग्रेस एंट्री के दौरान भूपेंद्र हुड्डा भी मंच पर मौजूद रहे, लेकिन उन्होंने दूर से ही नमस्ते किया? तंवर एक समय राहुल गांधी के करीबी माने जाते थे और वह हरियाणा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं. भूपेंद्र सिंह हुड्डा से सियासी अदावत और 2019 में प्रदेश अध्यक्ष का पद छिन जाने के बाद अशोक तंवर ने कांग्रेस छोड़ दी थी. इसके बाद सबसे पहले उन्होंने भारत मोर्चा नाम से एक संगठन बनाया और फिर टीएमसी में शामिल हो गए.

टीएमसी से निकलकर उन्होंने आम आदमी पार्टी का दामन थामा और लोकसभा चुनाव 2024 से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में एंट्री कर गए. सिरसा से अशोक तंवर ने बीजेपी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा था, लेकिन वह कुमारी सैलजा से जीत नहीं सके. अब विधानसभा चुनाव की वोटिंग से ठीक पहले उन्होंने बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में वापसी की है. अशोक तंवर के सियासी पाला बदलने के नफा-नुकसान को लेकर आकलन किया जा रहा है.

तंवर की एंट्री कितनी सीटों पर पड़ेगा असर

पूर्व सांसद अशोक तंवर हरियाणा में बड़ा दलित चेहरा माने जाते हैं और सिरसा लोकसभा सीट से सांसद भी रह चुके हैं. एक समय अशोक तंवर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी माने जाते थे, जिसके चलते ही उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था. दलित समाज से होने के चलते उनका अपने समुदाय पर अच्छी खासी पकड़ है और सिरसा लोकसभा क्षेत्र के तहत आने वाली सीटों पर खासा प्रभाव भी है. यही वजह है कि अशोक तंवर के सियासी पाला बदलने का सबसे ज्यादा सियासी असर सिरसा क्षेत्र की सीटों पर पड़ सकता है.

सिरसा लोकसभा क्षेत्र के तहत फतेहाबाद, सिरसा, रानिया, ऐलनाबाद, रातिया, कालांवाली, डबवाली, टोहाना और नरवाना विधानसभा सीटें आती हैं. साल 2019 के विधानसभा चुनाव में इनमें से दो सीटें बीजेपी, दो जेजेपी, दो कांग्रेस, दो निर्दलीय और एक इनेलो ने जीती थी. अशोक तंवर के आने से सिरसा के साथ-साथ पश्चिमी हरियाणा के इलाके में बीजेपी और जेजेपी को झटका लग सकता है जबकि कांग्रेस के लिए सियासी मुफीद साबिक हो सकता है.

सिरसा में दलित वोटर सबसे ज्यादा असरदार

सिरसा के सियासी समीकरण को देखें तो यहां सबसे ज्यादा दलित वोटर हैं और उसके बाद जाट समुदाय आते हैं. सिरसा संसदीय सीट पर 8 लाख से ज्यादा दलित हैं तो साढ़े तीन लाख जाट वोटर हैं. इसके अलावा दो लाख सिख जाट हैं तो एक लाख के करीब पंजाबी और एक लाख वैश्य हैं. ब्राह्मण और बिश्नोई समाज के लोग 50-50 हजार की संख्या में हैं. इसके अलावा ओबीसी और मुस्लिम मिलकर करीब पौने दो लाख वोटर हैं.

अशोक तंवर खुद दलित समुदाय से आते हैं और उनके आने से सिरसा के बेल्ट में दलितों का झुकाव कांग्रेस की तरफ हो सकता है, क्योंकि सिरसा की सांसद कुमारी सैलजा पहले से ही पार्टी में है. बीजेपी के लिए सिरसा बेल्ट में दलित वोटों को साधने वाला कोई नेता नहीं बचा. ऐसे में बीजेपी के लिए सिरसा बेल्ट में झटका लग सकता है.

बीजेपी के दलित नैरेटिव के लिए झटका

अशोक तंवर के कांग्रेस में शामिल होने बीजेपी के दलित वोटों को जोड़ने की उम्मीदों पर पानी फिर सकता है. कुमारी सैलजा की पहले नाराजगी और चुनाव में एक्टिव न होने को लेकर बीजेपी लगातार कांग्रेस पर दलित विरोधी होने का नैरेटिव सेट करने में जुटी हुई थी. पीएम नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह तक अपनी चुनावी रैलियों में कांग्रेस पर दलितों के उपेक्षा करने का आरोप लगा रहे थे. ऐसे में कांग्रेस ने अशोक तंवर की घर वापसी कराकर बीजेपी और विपक्षी पार्टियों की ओर से दलित नेताओं की उपेक्षा करने के आरोपों का तगड़े तरीके से जवाब दिया है.

अशोक तंवर के शामिल होने के बाद अब हरियाणा में कांग्रेस के पास दलित समुदाय के तीन बड़े नेता कुमारी सैलजा, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष उदयभान और अशोक तंवर हो गए हैं. इसके अलावा प्रियंका गांधी की करीबी प्रदीव नरवाल भी हैं. हरियाणा में बीजेपी और दूसरे विपक्षी दलों के पास दलित समुदाय के नेताओं की इतनी बड़ी फौज नहीं है और न ही कांग्रेस के दलित नेताओं की तरह उनके पास सियासी जनाधार है.

तंवर-सैलजा और उदयभान ने हरियाणा में कांग्रेस की कमान संभाली है. इस तरह कांग्रेस का जाट और दलित समीकरण बनाने का सियासी दांव है, उसे मजबूती मिल सकती है. कांग्रेस ने दलित-जाट समीकरण के चलते ही 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को तगड़ा झटका दिया था और अब उसी फॉर्मूले पर काम करते हुए प्रदेश की सत्ता हासिल करने का दांव चल रही है.

कांग्रेस में बढ़ेगी गुटबाजी, हुड्डा की नई टेंशन

हरियाणा में अशोक तंवर और भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सियासी अदावत जगजाहिर रही है. तंवर के कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ छत्तीस का आंकड़े था और पार्टी में वर्चस्व को लेकर कई बार विवाद में भी दिखे थे. भूपेंद्र हुड्डा ने अशोक तंवर को प्रदेशाध्यक्ष पद से हटाकर ही दम लिया. 2019 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने हुड्डा को सियासी तवज्जे दिया था. तंवर ने सोनिया गांधी के घर के बाहर विरोध प्रदर्शन भी किया था. इसके बाद अशोक तंवर ने कांग्रेस छोड़ दी थी और चुनाव में बीजेपी की मदद की थी. इसके चलते कांग्रेस को हिसार के बेल्ट में अच्छा-खासा नुकसान उठाना पड़ा था. ऐसे में तंवर के घर वापसी से कांग्रेस में गुटबाजी बढ़ सकती है, जो भूपेंद्र सिंह हुड्डा के लिए सियासी टेंशन बढ़ाएगी.

अशोक तंवर की कांग्रेस में एंट्री कराने में उनके साले अजय माकन का भी रोल माना जाता है. हरियाणा कांग्रेस में रणदीप सिंह सुरजेवाला और कुमारी सैलजा का एक गुट है तो दूसरा खेमा भूपेंद्र सिंह हुड्डा का है. सैलजा और हुड्डा गुट के बीच सियासी वर्चस्व की जंग पहले से चल रही है. ऐसे में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के विरोधी माने जाने वाले अशोक तंवर की एंट्री कांग्रेस की गुटबाजी को हवा दे सकती है.

यही वजह है कि अशोक तंवर जिस समय कांग्रेस में शामिल हुए, उस दौरान हुड्डा भी मंच पर मौजूद थे, लेकिन उन्होंने आगे बढ़कर न ही उनका स्वागत किया और न ही सियासी तवज्जो दी. इससे समझा जा सकता है कि तंवर की घर वापसी को लेकर भूपेंद्र सिंह हुड्डा खुश नहीं है.

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