लोकनीति बनाम राजनीति

रिपोर्ट अमरदीप नारायण प्रसाद

दरभंगा :लोकनीति और राजनीति, दोनों ही समाज को संचालित करने और जनहित के मुद्दों को सुलझाने की महत्वपूर्ण प्रक्रियाएँ हैं। हालांकि, इन दोनों में स्पष्ट अंतर है। जहां राजनीति सत्ता और शासन से जुड़ी होती है, वहीं लोकनीति का उद्देश्य समाज के लिए बेहतर नीति-निर्धारण और समग्र विकास होता है। दोनों के बीच अंतर को समझना, लोकतांत्रिक व्यवस्था को बेहतर ढंग से चलाने और आम जनता की भलाई सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है।

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राजनीति: राजनीति शब्द को आमतौर पर सत्ता से जोड़कर देखा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य शासन व्यवस्था में प्रवेश करना, पद प्राप्त करना और उसे बनाए रखना होता है। राजनीति का आधार सत्ता प्राप्ति और उसका संरक्षण होता है, चाहे वह लोकतंत्र हो, तानाशाही हो या किसी अन्य प्रकार की शासन प्रणाली। राजनीतिक दल, चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से सत्ता में आते हैं और अपने एजेंडा के आधार पर शासन करते हैं।

वर्तमान समय में, राजनीति अक्सर सत्ता संघर्ष और व्यक्तिगत या दलगत स्वार्थों के इर्द-गिर्द घूमती दिखाई देती है। कई बार, इसका मूल उद्देश्य जनसेवा और समाज की भलाई से हटकर सत्ता के लिए संघर्ष और लाभ अर्जित करना बन जाता है। चुनावी राजनीति में धनबल, बाहुबल और वोट बैंक की राजनीति हावी हो जाती है। सत्ता में बने रहने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा विभाजनकारी नीतियों और जनहित को नज़रअंदाज़ करने की घटनाएँ भी देखी जा सकती हैं।

लोकनीति: लोकनीति का शाब्दिक अर्थ है “जननीति” यानी जनता के हित में नीति निर्माण। लोकनीति राजनीति से अलग इसलिए है क्योंकि इसका केंद्रबिंदु सत्ता नहीं, बल्कि समाज की सेवा और भलाई है। इसमें नीतियों का निर्माण इस उद्देश्य से होता है कि समाज के सभी वर्गों को समान अवसर मिले, समाज का विकास हो और जनकल्याण की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएँ।

लोकनीति का आधार नैतिकता, पारदर्शिता, और समावेशी दृष्टिकोण पर टिका होता है। इसमें नीतियां जनता की भलाई और सामाजिक न्याय पर आधारित होती हैं, न कि किसी दल या व्यक्ति के स्वार्थ पर। लोकनीति समाज के कमजोर वर्गों के उत्थान पर विशेष ध्यान देती है, और यह सुनिश्चित करती है कि सरकारी नीतियां केवल कुछ चुनिंदा लोगों के फायदे के लिए नहीं बनाई जाएं, बल्कि पूरे समाज के कल्याण के लिए हों।

महात्मा गांधी, जिन्होंने स्वराज और ग्राम स्वराज की अवधारणा प्रस्तुत की थी, लोकनीति के सच्चे प्रतिनिधि थे। उनका विचार था कि सत्ता का विकेंद्रीकरण होना चाहिए और नीतियों का निर्माण स्थानीय स्तर पर जनता की जरूरतों और आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।

राजनीति और लोकनीति के बीच संतुलन : लोकनीति और राजनीति के बीच संतुलन की आवश्यकता है, क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक समाज में राजनीति के बिना शासन संभव नहीं है। लेकिन अगर राजनीति केवल सत्ता संघर्ष तक सीमित हो जाए और लोकनीति की उपेक्षा हो, तो इसका समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जनता का विश्वास शासन और सरकार से उठने लगता है और व्यवस्था में भ्रष्टाचार, असमानता और अन्याय बढ़ने लगते हैं।

इसलिए, राजनीतिक दलों और नेताओं को लोकनीति के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। नीतियों का निर्माण इस तरह से होना चाहिए कि वे समाज के विकास और जनता की भलाई पर केंद्रित हों, न कि केवल सत्ता प्राप्ति के लिए।

निष्कर्ष : लोकनीति और राजनीति के बीच का अंतर हमें यह सिखाता है कि केवल सत्ता प्राप्ति ही शासन का उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बल्कि जनता के हित में नीतियों का निर्माण और कार्यान्वयन होना चाहिए। राजनीति का उपयोग अगर जनहित में किया जाए और लोकनीति के साथ संतुलन स्थापित किया जाए, तो एक समृद्ध, न्यायपूर्ण, और समावेशी समाज का निर्माण संभव हो सकता है।

सद्दाम हुसैन
शोधार्थी
विश्वविद्यालय राजनीति विज्ञान विभाग
एल. एन. मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा।

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