National-विवादों से घिरे अली खान महमूदाबाद के दादा थे जिन्ना के खास सिपहसालार, मुस्लिम लीग के खजांची के तौर पर पाकिस्तान के निर्माण में निभाई थी अहम भूमिका! – #INA

अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र पढ़ाने वाले अली खान महमूदाबाद को बुधवार के दिन सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम जमानत तो दे दी, लेकिन लगे हाथों यह भी साफ कर दिया कि वो इस शिक्षक के आचरण और टिप्पणी को पूरी तरह गैरवाजिब और भड़काऊ मानती है, जो एक पढ़े-लिखे व्यक्ति से अपेक्षित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी वजह से न तो जांच प्रक्रिया पर रोक लगाई और न ही एफआईआर रद्द की। इसके उलट सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी के गठन का आदेश दिया, ताकि इस मामले की जांच तेजी से हो सके।
#BREAKING Supreme Court forms a special SIT to probe the statements made by Professor Mahmudabad on #OperationSindoor
SC grants him interim bail Says some words used by petitioners have “dual meanings”#AliKhanMahmudabad@AshokaUniv#SupremeCourtofIndia pic.twitter.com/Hge36GQ7i3 — Bar and Bench (@barandbench) May 21, 2025
कैसे फंसे विवादों में
हरियाणा पुलिस ने राज्य महिला आयोग की शिकायत पर अली खान को गिरफ्तार किया। देश की सबसे महंगी और अभिजात्य अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र पढ़ाने वाले अली खान महमूदाबाद के एक फेसबुक पोस्ट को लेकर विवाद शुरू हुआ, जिस सिलसिले में महिला आयोग ने उन्हें नोटिस देकर अपने सामने पेश होने के लिए कहा, लेकिन अली खान आयोग के सामने आने को तैयार नहीं हुए। उल्टे एक सार्वजनिक बयान जारी करते हुए आयोग के अधिकार क्षेत्र और इरादे पर ही सवाल उठा दिया। इसी से भन्नाये आयोग ने उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई। आयोग के साथ ही एक और नेता ने भी शिकायत दर्ज कराई।
इन शिकायतों के आधार पर हरियाणा पुलिस ने अली खान को गिरफ्तार किया। बाद में स्थानीय अदालत ने उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया। इसके बाद अली खान की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में जमानत के लिए याचिका दायर की गई, वकील थे कपिल सिब्बल। सुप्रीम कोर्ट ने अली खान को अंतरिम जमानत तो दे दी, लेकिन उनकी मंशा और हरकत पर गहरी नाराजगी जाहिर की।
ऐसा क्या लिख दिया था पोस्ट में
दरअसल अली खान महमूदाबाद ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान मीडिया ब्रीफिंग करने वाली कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर कटाक्ष करते हुए मॉब लिंचिंग वगैरह का मुद्दा उठाया था और पहलगाम में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमले पर चर्चा करने की जगह किसी और तरफ ही बहस को मोड़ने की कोशिश की थी। लगा ऐसा मानो पाकिस्तान के सामने भारत की सख्त कार्रवाई रास नहीं आ रही हो या फिर द्विराष्ट्र सिद्धांत की बात करने वाले पाकिस्तान के कठमुल्ले शासकों और सैन्य अधिकारियों को कर्नल कुरैशी के जरिये तगड़ा सांकेतिक जवाब देने की भारत की कोशिश अली खान को पसंद नहीं आई हो।
सुप्रीम कोर्ट ने अली खान के इसी रवैये को डॉगव्हिसलिंग की संज्ञा दी, यानी वो हरकत, जिसके तहत आप इशारों ही इशारों में लोगों, समुदायों को भड़काने की कोशिश करते हैं, उनका ध्रुवीकरण करने की कोशिश करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि जब देश पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 26 लोगों की जान जाने के बाद ऑपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तान को सबक सिखाने में लगा हुआ था, उस समय अली खान महमूदाबाद ने अपने पोस्ट के जरिये बहस को दूसरी दिशा में ले जाने की कोशिश की, जो ऐसे माहौल में वाणी स्वतंत्रणा के नाम पर कहीं से भी उचित नहीं कही जा सकती।
खुद भी राजनीति करते हैं अली खान महमूदाबाद
सवाल ये उठता है कि अली खान महमूदाबाद ने ऐसा क्यों किया। इसका जवाब ये है कि अली खान सिर्फ राजनीति शास्त्र पढ़ाते ही नहीं है, बल्कि खुद राजनीति करते भी हैं, जमकर सक्रिय हैं, समाजवादी पार्टी के नेता हैं। उनके ज्यादातर सोशल पोस्ट राजनीति से जुड़े हुए होते है, वो भी मुस्लिम हित से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखते हुए, सत्तारुढ़ बीजेपी और संघ परिवार पर हमला बोलते हुए। उदारवादी होने की आड़ में अली खान महमूदाबाद मुस्लिम पहचान की राजनीति करते नजर आते हैं।
दरअसल अली खान को इस तरह की सियासत विरासत में मिली है, खास तौर पर अपने दादा से। बहुत कम ही लोगों को ध्यान में होगा कि जो पाकिस्तान Two Nation Theory के तौर पर, जेहादी, सांप्रदायिक सोच के साथ, मुसलमानों के लिए अपने देश के तौर पर अस्तित्व में आया, उसको जन्म देने वाले हैं अली खान के अपने दादा मोहम्मद अमीर अहमद खान, जो राजा ऑफ महमूदाबाद के तौर पर इतिहास की पुस्तकों में दर्ज हैं।
कितने पहुंचे हुए थे मोहम्मद अमीर अहमद खान
ये वही राजा महमूदाबाद थे, जिन्होंने मुस्लिम लीग की राजनीति को पोषित किया, अपना खजाना उसको मजबूत करने के लिए खोल दिया। तब के संयुक्त प्रांत में महमूदाबाद काफी समृद्ध तालुकेदारी थी, फिलहाल उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले का एक हिस्सा है ये और विधानसभा क्षेत्र भी। राजा महमूदाबाद ने औपचारिक तौर पर मुस्लिम लीग के खजांची की भूमिका निभाई। महमूदाबाद राजा पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना के खास सहयोगी थे, कंधे से कंधा मिलाकर भारत का विभाजन करवाकर पाकिस्तान बनाने के कुचक्र में शामिल थे। ये जानना भी रोचक होगा कि जिस अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पाकिस्तान नामक जहरीले वृक्ष को सबसे अधिक खाद, पानी और वैचारिक समर्थन हासिल हुआ, उसके संस्थापक वाइस चांसलर थे राजा महमूदाबाद के अब्बा मोहम्मद अली मोहम्मद खान. तत्कालीन राजा महमूदाबाद।
सांप्रदायिक कट्टरता के मामले में महमूदाबाद राजा मोहम्मद अमीर अहमद खान मोहम्मद अली जिन्ना से भी दो कदम आगे थे। हाल ये था कि जिन्ना जहां पाकिस्तान बन जाने के बावजूद ये कहते रहे कि यहां सभी समुदाय के लोग साथ मिलकर रह सकते हैं, वहीं राजा महमूदाबाद 1939 में ही पाकिस्तान को इस्लामिक स्टेट के तौर पर हासिल करने का इरादा करके बैठे थे। अपने एक साथी और इतिहासकार मोहिबुल हसन को राजा महमूदाबाद ने जो पत्र लिखा था, उसमें इसकी झलक साफ तौर पर मिल जाती है।
क्या लिखा था लेटर में
राजा महमूदाबाद ने पत्र में लिखा था-
“जब हम इस्लाम में लोकतंत्र की बात करते हैं, तो यह सरकार में लोकतंत्र नहीं, बल्कि जीवन के सांस्कृतिक और सामाजिक पहलुओं में लोकतंत्र है। इस्लाम अधिनायकवादी है, इसमें कोई इनकार नहीं है। हमें कुरान की ओर रुख करना चाहिए। हम कुरान के नियमों की तानाशाही चाहते हैं, और वह हमें मिलेगी, लेकिन अहिंसा और गांधीवादी तरीके से नहीं।”
महमूदाबाद राजा के विचार कितने हिंसक, जेहादी और सांप्रदायिक थे, इसकी झलक इस पत्र से मिल जाती है। ध्यान रहे कि जब ये पत्र लिखा गया, उस समय जिन्ना भी उतने कट्टर नहीं थे, उन्होंने महमूदाबाद राजा को इस तरह के पत्र लिखने के लिए डांट लगाई थी। जिन्ना को डर ये भी था कि भविष्य का पाकिस्तान कैसा होगा, अगर इस तरह के विचारों के जरिये बाहर आ गया, तो उनका पाकिस्तान प्रोजेक्ट कही खतरे में न पड़ जाए।
मुस्लिम नेशनल गार्ड्स के गठन में भी अहम भूमिका
जिन्ना भले ही अपने असली इरादे को छुपा कर रखना चाहते थे, लेकिन महमूदाबाद राजा को कोई परेशानी नहीं थी। इसलिए उन्होंने मुस्लिम नेशनल गार्ड्स के गठन में भी अहम भूमिका निभाई। इस संगठन ने न सिर्फ सांप्रदायिक आधार पर भारत के विभाजन के पहले, बल्कि विभाजन के समय और उसके बाद भी हिंदुओं और सिखों को मारने- काटने में कोई कमी नहीं की, लूट, हत्या और बलात्कार उसका एजेंडा रहा, तलवार और बंदूक का इस्तेमाल करने में कोई हिचक नहीं हुई इसे।
हालांकि जब पाकिस्तान का अस्तित्व में आना तय हो गया, तो राजा महमूदाबाद को अपनी संपत्ति सहेजने, बचाने का ख्याल आया। आखिर, लखनऊ और उसके आसपास ही नहीं, बल्कि महमूदाबाद से लेकर देश के कई हिस्सों में उनकी सैकड़ों करोड़ की संपत्ति थी। भले ही जिन्ना और राजा महमूदाबाद के इशारे पर, उनकी सांप्रदायिक सोच से प्रभावित मुसलमान बड़े पैमाने पर अपने सपने के देश पाकिस्तान का रुख कर रहे थे, पीछे अपनी स्थाई संपत्ति छोड़कर, लेकिन इन दोनों को अपने महल और बाकी स्थाई संपत्ति की चिंता थी, जो हिंदुस्तान में रह जाने वाला था।
यह सर्वविदित है कि किस तरह पाकिस्तान का गवर्नर जनरल बन जाने के बाद भी मुंबई में अपने महल जैसे घर पर अपना हक बनाए रखने के लिए जिन्ना गिड़गिड़ाते रहे, जवाहरलाल नेहरू को चिट्ठियां लिखते रहे, घर का किराया वसूल करने का ख्वाब देखते रहे, वहां समय- समय पर आने का ख्वाब देखते रहे। लेकिन ये बहुत कम लोगों को पता है कि राजा महमूदाबाद ने भी अपनी करोड़ों की संपत्ति बचाने के लिए क्या दांव खेला, किस तरह से खेला।
पाकिस्तान से प्रकाशित होने वाले अखबार फ्राइडे टाइम्स के लिए लिखे गये अपने लेख में मशहूर इतिहासकार इश्तियाक अहमद ने इसका खुलासा किया है। उन्होंने कहा है कि जब जिन्ना सात अगस्त 1947 को मुंबई से कराची आए, एक हफ्ते बाद आकार ले रहे अपने सपने के देश पाकिस्तान की बागडोर संभालने के लिए, तो उन्हीं की तरह राजा महमूदाबाद भी पाकिस्तान आ गये।
जब रहस्यमयी तरीके से ईरान हुए रवाना
लेकिन 14 अगस्त 1947 को जब पाकिस्तान आधिकारिक तौर पर, कृत्रिम ढंग से, मुस्लिमों के लिए अलग देश के तौर पर अस्तित्व में आ रहा था, महमूदाबाद राजा ठीक एक दिन पहले रहस्यमय तरीके से क्वेटा से एक डकोटा विमान में बैठकर ईरान के जाहेदान शहर के लिए रवाना हो लिए। राजा महमूदाबाद खुद शिया थे, इसलिए वो शिया बहुल ईरान उस दिन नहीं गये थे, बल्कि गये थे, एक सोची- समझी रणनीति के तहत, एक खास बहाना गढने के लिए।
इसका भी अंदाजा तब हुआ इश्तियाक अहमद को, जब उन्होंने पाकिस्तान आंदोलन के कट्टरवादी पहलू को लेकर एक लेख वर्ष 2002 में लिखा और इस लेख के छपते ही राजा महमूदाबाद के एक पोते का उनके पास ई-मेल आया, इस दरख्वास्त के साथ कि वो एक लेख लिखें, जिसमें इस बात को मजबूती से रखा जाए कि राजा महमूदाबाद 13 अगस्त को ही क्वेटा छोड़कर ईरान चले गये थे, इसलिए वो पाकिस्तान के नागरिक नहीं थे। इसके जरिये इरादा ये साबित करने का था कि जिस दिन पाकिस्तान अस्तित्व में आया, उस दिन चूंकि राजा महमूदाबाद पाकिस्तान में नहीं थे, इसलिए उनकी भारतीय नागरिकता बरकरार रहने की बात स्थापित हो।
महमूदाबाद खानदान का हिंदुस्तान में अपनी संपत्ति बचाने का सपना नहीं हुआ पूरा
राजा महमूदाबाद अपनी जिंदगी में जो हासिल नहीं कर सके, वो उनके बेटे और पोते हासिल कर पाएं, कोशिश इस बात की थी। नजर महमूदाबाद रियासत की संपत्ति पर। एक तरफ पाकिस्तान पा लेना, तो दूसरी तरफ हिंदुस्तान में मौजूद अपनी संपत्ति पर भी आंच न आना, दोनों हाथ में लड्डू रखने का ख्वाब था राजा महमूदाबाद और उनके वारिसों का।
लेकिन राजा महमूदाबाद और उनके वारिसों का ये इरादा कामयाब नहीं हो पाया। पहले तो सपने के देश की ही हवा निकल गई, वो भी महज एक दशक के अंदर। कहां तो राजा महमूदाबाद ने सोचा था कि पाकिस्तान प्रोजेक्ट कामयाब होने के बाद यहां मजे से राज करेंगे, और कहां पंजाबी दबदबे वाले पाकिस्तान में जिन्ना की मौत के साथ ही उन सबका नूर उतर गया, जो पाकिस्तान बनाने के लिए सबसे ज्यादा आमादा थे। पंजाबियों ने उन्हें साफ संकेत दे दिया कि पाकिस्तान में मुहाजिरों के वर्चस्व के लिए कोई जगह नहीं है, यहां तो धरतीपुत्र ही राज करेंगे। पाकिस्तान की तरफ हिजरत करने वाले तमाम मुसलमानों को मुहाजिर करार दे दिया गया था, पाकिस्तान की स्थापना के साथ ही, मुहाजिर यानी शरणार्थी।
ड्रीम लैंड में ही बन गए दोयम दर्जे के नागरिक
अपने ड्रीम लैंड में ही दोयम दर्जे के नागरिक बन गये राजा महमूदाबाद और उनके जैसे वो तमाम खास और आम लोग, जिन्होंने पाकिस्तान के ख्वाब को हकीकत में बदलने के लिए हर किस्म का दांव खेला था, खून बहाने से लेकर सांप्रदायिक राजनीति करने से भी गुरेज नहीं किया था। सच्चाई ये है कि मुस्लिम लीग को पूरी ताकत ही तब के संयुक्त प्रांत, बिहार, मध्य प्रांत से मिली थी, जहां के मुसलमानों ने जमकर वोट किया था इस पार्टी को, तब कांग्रेस उनके लिए हिंदू पार्टी हुआ करती थी। मुस्लिम लीग के ज्यादातर बड़े नेता इन्हीं इलाकों से थे।
लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद हालात ऐसे बने कि अपने सपने के ही देश में पराये हो गये ये सारे मुस्लिम लीग के नेता। पाकिस्तान तो बना, लेकिन वहां ताकत रही पाकिस्तान वाले पंजाब प्रांत के नेताओं के पास, बाकी सारे उनकी शरण में रहे। आज तक वही सिलसिला चला आ रहा है, पाकिस्तान के शासन पर पंजाबी शहबाज शरीफ प्रधानमंत्री के तौर पर काबिज हैं, तो पंजाबी मुल्ला जनरल आसिम मुनीर पाकिस्तान की सेना का प्रमुख । पंजाबियों ने पाकिस्तान बनने के साथ ही मुहाजिरों को सीधे कराची भगा दिया, जहां से आगे अरब सागर ही था। यही वजह रही कि मुहाजिरों के हक की लड़ाई लड़ने वाली पार्टी के तौर पर एमक्यूएम के आंदोलन का केंद्र आगे चलकर कराची ही बना, धीरे- धीरे कराची में भी इसका असर खत्म हो गया।
जहां तक पाकिस्तान निर्माण के बाद राजा महमूदाबाद की गतिविधियों का सवाल था, शुरु के दिनों में ईरान में रहने के बाद वो इराक चले गये। उनके साथ उनकी पत्नी रानी कनीज आबिद भी थीं, साथ में तीन साल के पुत्र मोहम्मद अमीर मोहम्मद खान, जो बाद के दिनों में सुलेमान मियां के तौर पर जाने गये। शियाओं के लिहाज से महत्वपूर्ण शहर करबला में काफी समय बिताया राजा महमूदाबाद ने। कारण क्या था, कभी साफ नहीं हुआ। अपनी वजह से ही हुए विभाजन में लाखों लोगों का खून बहा था, उसका पश्चाताप करने के लिए या फिर अपनी इस्लामी जड़ों को और मजबूत करने के लिए, ये तो राजा महमूदाबाद ही जानें।
कुछ वक्त के लिए लखनऊ भी आए
पाकिस्तानी अखबार डॉन, जिसके संस्थापक थे जिन्ना और जिसे चलाने के लिए धन मुहैया कराया था राजा महमूदाबाद ने, उसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक, इराक में कुछ समय बिताने के बाद राजा महमूदाबाद थोड़े समय के लिए लखनऊ भी आए, लेकिन वहां मन नहीं लगा और 1947 से लेकर 1957 तक वो मोटे तौर पर इराक में ही रहे। बीच- बीच में अपने सपनों के देश पाकिस्तान या फिर अपनी संपत्ति संभालने के लिए हिंदुस्तान आते रहे।
वर्ष 1950 में रानी कनिज भी अपनी दो बेटियों और सात साल के बेटे सुलेमान मियां के साथ इराक चली आईं। अगले तीन सालों तक सुलेमान मियां की पढ़ाई इराक में ही हुई, जहां वो अरबी, फारसी और बाकी ज्ञान हासिल करते रहे। इसके बाद रानी तो अपने बच्चों के साथ लखनऊ लौट आईं, लेकिन राजा महमूदाबाद आखिरकार 1957 में पाकिस्तान जा पहुंचे। वहां उन्होंने तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त सीसी देसाई को अपना भारतीय पासपोर्ट सौंप दिया, जिस पासपोर्ट के जरिये वो तमाम देशों में प्रवास कर रहे थे। इसके बाद औपचारिक तौर पर पाकिस्तान की नागरिकता स्वीकार की, पाकिस्तान बनने के पूरे दस साल बाद।
ये कोई अनूठा मामला नहीं था। पाकिस्तान बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले ज्यादातर नेताओं का यही हाल था। इन सबको लगता था कि इस्लामी राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान बनाकर कौम की सेवा करेंगे, और फिर सेक्युलर हिंदुस्तान में जाकर मजे भी करेंगे। मुस्लिम लीग के बड़े नेताओं में से एक शाहनवाज भुट्टो के बेटे जुल्फिकार अली भुट्टो ने, जिसने खुद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी बनाई, आगे देश के प्रधानमंत्री बने, 1967 में जाकर अपना भारतीय पासपोर्ट सरेंडर किया। कल्पना कीजिए, जो भुट्टो हिंदुस्तान से हजार वर्ष की जंग करने का दम भरता था, जनरल अयूब का खासमखास था, 1965 के युद्ध में भारत के खिलाफ जीत के ख्वाब देख रहा था, वही भुट्टो पूरी निर्लज्जता के साथ 1967 तक भारतीय पासपोर्ट रखे हुए था। भारत के शत्रु और पाकिस्तान के लिए जान छिड़कने वाले, उसकी अगुआई करने वाले, खुद भारत का पासपोर्ट लेकर घुमते रहे, ऐसी संख्या काफी थी, राजा महमूदाबाद और भुट्टो ज्यादा चर्चित नाम थे।
इसी 1965 की जंग के बाद भारत सरकार ने 1968 में ‘भारत शत्रु संपत्ति कानून’ लागू किया, जिसके तहत उन लोगों की संपत्तियां जब्त की गईं, जो या तो पाकिस्तान में थे, या फिर उनकी संतानें हिंदुस्तान में कुंडली मारकर उनकी संपत्तियों पर बैठी हुई थीं। कहां तो नैतिकता का तकाजा था कि अपने सपने के देश के लिए लड़ने और फिर उसे पा लेने के बाद भारत की तरफ झांकते भी नहीं ऐसे लोग और कहां लालच के मारे उस संपत्ति पर हर हाल में कब्जा बनाए रखने की जिद, पूरी बेशर्मी के साथ।
जिस पाकिस्तान के लिए सब कुछ, वहीं जगह नहीं
लेकिन नियति का अपना खेल होता है। जिस पाकिस्तान के लिए सब कुछ किया, खून- पसीना बहाया, भारत को तोड़ा, उसी पाकिस्तान में ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं रही। टूटे हुए दिल के साथ राजा महमूदाबाद पाकिस्तान छोड़कर लंदन में रहने लगे, वही मस्जिद बनाकर अपनी मजहबी भावनाओं को संबल और संतोष देते रहे, और चौदह अक्टूबर 1973 को टूटे हुए दिल के साथ ही इस संसार से विदा भी हो गये।
राजा महमूदाबाद के गुजर जाने के बाद उनके बेटे सुलेमान मियां 1974 से कानूनी लड़ाई लड़ते रहे, महमूदाबाद राज की संपत्ति पर कब्जा हासिल करने के लिए, जिस संपत्ति को कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार के रहते हुए ही जब्त कर लिया गया था। ये लड़ाई लंबी चली, और 2005 में जाकर उनके हक में सुप्रीम कोर्ट से फैसला आया। जिस समय सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आया, उस वक्त केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार थी, आरोप लगा कि सरकार मजबूती से अपना पक्ष नहीं रख पाई।
जो जिन्ना या फिर उनके खास राजा महमूदाबाद पाकिस्तान बनने से पहले कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहते थे, उस कांग्रेस का भी रुप, रंग, तेवर तब तक बदल चुका था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक वो हिंदू हितों की रक्षा करने वाली पार्टी की जगह मुस्लिम वोट बैंक के लिए सब कुछ दांव पर लगाने वाली कांग्रेस बन चुकी थी। यही नहीं, राजा महमूदाबाद के बेटे सुलेमान मियां, तब तक उसी महमूदाबाद से दो बार कांग्रेस के विधायक भी बन चुके थे, वर्ष 1985 और 1989 में।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद कोहराम मचा, यूपीए सरकार को अध्यादेश लेकर आना पड़ा। सुलेमान मियां का एक समय की महमूदाबाद रियासत की संपत्ति फिर से हासिल करने का सपना हकीकत में बदल नहीं पाया। राजा महमूदाबाद की संपत्ति में कभी लखनऊ का बटलर पैलेस भी आता था, जो आज सरकार के नियंत्रण में है।
शत्रु संपत्ति कानून पर पीएम मोदी की सख्ती से टूटा महमूदाबाद खानदान का सपना
करोड़ों रुपये की संपत्ति हासिल करने का ख्वाब दिल में रखते हुए ही सुलेमान मियां चार अक्टूबर 2023 को गुजर गये। उनका सपना पूरा होने की कोई संभावना भी नहीं बची थी, क्योंकि 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में केंद्र की सत्ता में आई एनडीए सरकार ने 2017 में शत्रु संपत्ति कानून को और कड़ा बना दिया, जिसके तहत ये व्यवस्था कर दी गई कि शत्रु तो ठीक, उसके वारिस भी इस कानून के तहत जब्त की गई संपत्ति पर हक नहीं जता सकते, भले वो पाकिस्तान की जगह हिंदुस्तान में ही क्यों न रह गये हों। सुलेमान मियां तो नहीं रहे, उनके बेटे अब भी आह भरते हैं, पुरखों की समृद्धि को याद करते हुए।
सुलेमान मियां के दो बेटों में से एक अली खान अब भी अपने नाम में महमूदाबाद लगाते हैं, उस इतिहास से जोड़े रकने के लिए, जो कभी अवध की सबसे समृद्ध तालुकेदारी थी, रियासत थी, और जिसके तत्कालीन शासक के तौर पर राजा महमूदाबाद ने मुस्लिम लीग की राजनीति करते हुए पाकिस्तान का निर्माण किया, भारत का विभाजन करते हुए। उन्हीं की परंपरा में, अगर अली खान की तरफ से इशारे- इशारे में मुस्लिम कार्ड खेला जाए, पाकिस्तान की सरकार और सेना की जगह अगर भारत की सरकार की आलोचना की जाए, तो फिर भला आश्चर्य क्या।
अच्छी बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में डॉग व्हिसलिंग का जिक्र करते हुए अली खान महमूदाबाद की असली मानसिकता को सामने रख दिया है। इससे पहले तक तो मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने और उसे समर्थन देने वाली जमात अली खान को उदारवादी ठहराते हुए, उनके समर्थन में आवाज बुलंद कर रही थी, उनकी वाहियात टिप्पणी की आलोचना करने की जगह, उसे अभिव्यक्ति की आजादी ठहरा रही थी और माहौल ऐसा बना रही थी मानो भारत में लोकतंत्र ही खत्म हो गया हो।
विवादों से घिरे अली खान महमूदाबाद के दादा थे जिन्ना के खास सिपहसालार, मुस्लिम लीग के खजांची के तौर पर पाकिस्तान के निर्माण में निभाई थी अहम भूमिका!
देश दुनियां की खबरें पाने के लिए ग्रुप से जुड़ें,
#INA #INA_NEWS #INANEWSAGENCY
Copyright Disclaimer :-Under Section 107 of the Copyright Act 1976, allowance is made for “fair use” for purposes such as criticism, comment, news reporting, teaching, scholarship, and research. Fair use is a use permitted by copyright statute that might otherwise be infringing., educational or personal use tips the balance in favor of fair use.
Credit By :-This post was first published on hindi.moneycontrol.com, we have published it via RSS feed courtesy of Source link,