Delhi-Ncr दिल्ली में 37 साल तक जब नहीं हुए विधानसभा चुनाव, जानें किसके हाथों में रहा शासन- #INA
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दिल्ली में इन नेताओं का भी रहा शासन
दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी बिसात बिछाई जा रही है. आम आदमी पार्टी से लेकर बीजेपी और कांग्रेस सत्ता पर काबिज होने की लड़ाई लड़ रही हैं, तो बसपा से लेकर असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM तक किंगमेकर बनने के लिए किस्मत आजमा रहे हैं. दिल्ली चुनाव के लिए शह-मात का खेल चल रहा है, लेकिन 37 साल तक राजधानी में कोई भी विधानसभा चुनाव नहीं हुए थे. इसके चलते बिना मुख्यमंत्री के दिल्ली चलती रही. ऐसे में सवाल उठता है कि फिर आखिर किसके हाथों में दिल्ली का शासन रहा?
आजादी के बाद देश की राजधानी दिल्ली बनी. संविधान लागू होने के बाद 1991-52 में विधानसभा चुनाव हुए. कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत के साथ दिल्ली में सरकार बनाई और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर चौधरी ब्रह्म प्रकाश विराजमान हुए. मौजूदा उपराज्यपाल की तरह उस समय दिल्ली में चीफ कमिश्नर हुआ करते थे. सीएम ब्रह्म प्रकाश कमिश्नर आनंद डी पंडित के साथ तनातनी चलती रही. इसके चलते उन्हें 1955 में सीएम पद छोड़ना पड़ा और उनकी जगह पर गुरुमुख निहाल सिंह मुख्यमंत्री बने. लेकिन, एक नवंबर 1956 को दिल्ली विधानसभा भंग कर दी गई, जिसके बाद 37 साल तक दिल्ली में विधानसभा चुनाव नहीं हो सके.
केंद्र ने 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया
दिल्ली के सियासी इतिहास में एक नवंबर 1956 का दिन महत्वपूर्ण चैप्टर से जुड़ा हुआ है. विधानसभा भंग करके दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था. इसके चलते दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था बदल गई. उपराज्यपाल का शासन आ गया. चौधरी ब्रह्म प्रकाश के सीएम पद से इस्तीफा देने के बाद केंद्र सरकार ने 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया था. इस कमीशन की बागडोर फज़ल अली को सौंपी गई. इसके चलते फजल अली कमीशन भी कहा जाता है, जिसके सिफारिशों के आधार पर दिल्ली से राज्य का दर्जा छीन लिया गया. विधानसभा भंग कर दी गई और दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. इस तरह साल 1956 से लेकर 1993 तक दिल्ली पर केंद्र सरकार का नियंत्रण रहा.
राज्य पुनर्गठन आयोग (एसआरसी) ने दिल्ली विधानसभा को 1956 में भंग किए जाने के बाद इस आयोग ने पाया कि राजधानी में दोहरे शासन से पूरी व्यवस्था चरमरा गई है. ऐसे में यहां एक ही शासन हो सकता है. हालांकि उन्होंने ये जरूर कहा कि स्थानीय लोगों की महत्वाकांक्षा के लिए नगर निगम के शासन की जरूरत है, जो स्थानीय स्तर पर लोगों की समस्याओं का समाधान कर सके. ऐसे में फजल अली कमीशन की सलाह पर दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन एक्ट के द्वारा दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन की स्थापना हुई.
दिल्ली की जिम्मेदारी उपराज्यपाल के हाथ में थी
साल 1957 में दिल्ली नगर निगम एक्ट बनाने का काम शुरू किया गया, जिससे दिल्ली को निगम मिल गया. दिल्ली के लोगों की आशाओं को ध्यान में रखते हुए 1966 में केंद्र सरकार ने दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट 1966 पास किया. इससे दिल्ली में मेट्रोपॉलिटन काउंसिल का निर्माण हुआ, जिसमें 56 सदस्य चुने हुए और पांच मनोनीत सदस्य हों. इसके साथ ही एक एक्जीक्यूटिव काउंसिल होती थी, जिसमें चार काउंसलर राष्ट्रपति द्वारा चुने जाते थे.
दिल्ली में मेट्रोपॉलिटन काउंसिल बन तो गया, लेकिन इसके पास कोई शक्ति नहीं थी,यह सिर्फ सिफारिशें कर सकता था और बजट प्रस्ताव रख सकता था. दिल्ली के प्रमुख उपराज्यपाल होते थे और नगर पालिका के पास विधायी शक्तियां नहीं थी. इसके चलते मेट्रोपॉलिटन काउंसिल बॉडी सिर्फ उपराज्यपाल को सलाह दे सकती थी. दिल्ली में उपराज्यपाल ही मुखिया हुआ करते थे. दिल्ली के शासन और प्रशासन की जिम्मेदारी का दारोमदार पूरी तरह उपराज्यपाल के कंधों पर था.
सत्तर का दशक आते-आते मेट्रोपॉलिटन काउंसिल दिल्ली की जरूरतों के हिसाब से नाकाफी सिद्ध हो चुकी थी. ऐसे में एक औपचारिक विधानसभा वाली व्यवस्था की मांग तेज होने लगी. केंद्र में जनता पार्टी की सरकार रहते हुए पहला मौका आया जब दिल्ली के राज्य का दर्जा बहाल करने की कोशिश की गई. जनसंघ और जनता पार्टी ने मेट्रोपॉलिटन काउंसिल में कई प्रस्ताव पेश किए और कहा यह समय की मांग है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले. ऐसे में कांग्रेस पार्टी ने भी पांचवीं मेट्रोपॉलिटन काउंसिल की अध्यक्षता करते हुए दिल्ली के राज्य का दर्जा का प्रस्ताव पेश कर दिया.
सरकारिया कमेटी का गठन
अस्सी के दशक में दिल्ली राज्य की मांग तेज होने लगी. दिल्ली में प्रशासनिक सुधार के लिए 1987 में सरकारिया कमेटी का गठन किया गया, जिसे बाद में बालाकृष्णन कमेटी के नाम से जाना गया. 14 दिसंबर, 1989 को सरकारिया कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी. इस कमेटी ने सिफारिश की थी कि दिल्ली को अपनी सरकार मिलनी ही चाहिए, भले ही कुछ क्षेत्र पर केंद्र का नियंत्रण हो. इसमें दिल्ली में विधानसभा बनाने का प्रस्ताव दिया गया था.
नरसिम्हा राव के अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार ने 1991 में संसद में 69वां संविधान संशोधन किया गया. दिल्ली को स्पेशल स्टेटस देकर घोषित किया गया. लेफ्टिनेंट गवर्नर को दिल्ली का प्रशासक बनाया गया. संवैधानिक बदलावों के लिए नेशनल कैपिटल टेरिटरी (NCT act, 1991) एक्ट पास किया गया. इसी नए कानून के तहत 1993 में दिल्ली में पहली बार विधानसभा के चुनाव हुए. बीजेपी ने बहुमत से सरकार बनाई. मदनलाल खुराना दिल्ली के मुख्यमंत्री बने. इसके बाद से दिल्ली में लगातार विधानसभा चुनाव हो रहे हैं.
1993 से लेकर अभी तक सात बार दिल्ली में विधानसभा चुनाव हो चुके हैं. 1993 में बीजेपी ने सरकार बनाई थी, तो 1998 से लेकर 2013 तक कांग्रेस की सरकार रही. शीला दीक्षित दिल्ली की तीन बार मुख्यमंत्री रहीं. 2013 से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है. अन्ना आंदोलन से निकले अरविंद केजरीवाल तीन बार दिल्ली के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. मौजूदा समय में आम आदमी पार्टी की आतिशी दिल्ली की सीएम हैं.
दिल्ली में 37 साल तक जब नहीं हुए विधानसभा चुनाव, जानें किसके हाथों में रहा शासन
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