Entertainment: श्याम बेनेगल और किसानों के ‘मंथन’ से जो निकला, क्या आज के फिल्ममेकर्स के लिए मुमकिन है? – #iNA

मंथन अपने टाइटल के नेचर के मुताबिक ही मंथन की गहराइयां लिये हुए है. यह महज एक फिल्म नहीं बल्कि इतिहास की रचना है. इतिहास ऐसा जहां ना राजा है न रानी है, बस किसान हैं और किसानों के संघर्ष भरी कहानी है. आज जबकि किसान सड़कों पर उमड़े हैं, छोटे-छोटे संगठनों में बंटे हैं, जितने संगठन उतने इरादे और मंसूबे तो इस फिल्म की बानगी किसानों की एकजुटता और उनके मंथन से नतीजे की ओर शिद्दत से इशारा करती है. खास बात ये कि श्याम बेनेगल जैसे दिग्गज फिल्मकार ने यह इशारा सालों पहले सन् 1976 में ही कर दिया था. वह देश में लगे आपातकाल का दौर था, वह भारतीय राजनीति के इतिहास में काला अध्याय की तरह है लेकिन दूसरी तरफ श्याम बेनेगल सिनेमा का स्वर्णिम अध्याय लिख रहे थे.

मंथन कई मायने में अहम है. इससे कई ऐसे कीर्तिमान जुड़े हैं जो शायद ही किसी फिल्म के नाम हों. यह देश की पहली क्राउडफंडेड फिल्म है. किसी व्यावसायिक फायनेंसर का एक भी पैसा नहीं लगा था. श्याम बेनेगल वैसे भी अपनी फिल्मों में कमर्शियल फायनेंसर से पैसे नहीं लगवाने के लिए विख्यात रहे हैं. वो जानते थे कि अंकुर या निशांत जैसी उनकी सार्थक फिल्मों के कितने दर्शक मिलेंगे. लिहाजा वे फायनेंसर के पैसे डूबोना नहीं चाहते थे. दूसरी बात कि कमाने की मंशा रखने वाले फायनेंसर अगर उनके प्रोजेक्ट में निवेश करेंगे तो फिर कहानी का क्या होगा और कहानी के मिशन का क्या होगा? लिहाजा कभी क्राउंडफंड तो कभी एनएफडीसी तो कभी करीबी जानकार फायनेंसर ही उनकी फिल्मों में पैसे लगाते थे.

मंथन मूवी एक मिशन

मंथन क्यों और कैसे बनी- ये कहानी जगजाहिर है लेकिन मंथन पर विचार करने से पहले इस फिल्म को दोबारा बारीकी से देखना और इसके मिशन पर गौर करना भी जरूरी है. श्याम बेनेगल ने गुजरात में दूध के कारोबारी वर्गीज कुरियन की कहानी सुनी थी. उन्हें उनकी लाइफ में संगठनात्मक शक्ति का भरपूर अहसास हुआ. उन्होंने ठाना कि अब वर्गीज कुरियन की श्वेत क्रांति को सिनेमा के जरिए देश के कोने-कोने तक किसानों तक पहुंचाना चाहिए. ताकि किसानों में जागृति लाई जा सके. यह एक प्रकार से जागरुकता मिशन था. लेकिन समस्या फंड की थी.

फिल्म के प्रोजेक्ट के साथ उनकी मुलाकात कुरियन से हुई. उन्होंने ही यह आइडिया रखा कि क्यों न इस फिल्म के लिए किसानों से ही क्राउड फंड कराया जाए. किसानों को जोड़ा जाए. फिल्म का मकसद किसानों तक पहुंचाना है तो किसानों को भी जोड़ना जरूरी है. श्याम बेनेगल को यह विचार पसंद आया.

5 लाख किसानों ने 2-2 रुपये दिए

मंथन के निर्माण में कुल 10 लाख के बजट की जरूरत थी. सन् 1974-75 के जमाने में एक सार्थक मूवी निर्माण के लिए 10 लाख बहुत कम नहीं था. श्याम बेनेगल भी इस फिल्म की मेकिंग से इतिहास रचना चाहते थे. वर्गीज कुरियन की मदद से गुजरात में कुल 5 लाख किसानों का समूह तैयार किया गया. सभी 5 लाख किसानों ने अपनी-अपनी जमा राशि में से 2-2 रुपये दिये. इस प्रकार कुल 10 लाख की रकम इकट्ठा हो सकी. हालांकि यह काम भी आसान नहीं था. 5 लाख किसानों से 2-2 रुपये इकट्ठा करने में महीनों लगे. उधर फंड जमा होते रहे, इधर कलाकारों का चयन शुरू हुआ.

अंकुर और निशांत जैसी फिल्मों के माध्यम से श्याम बेनेगल ने जो प्रतिष्ठा हासिल की थी, जो विश्वसनीयता कायम की थी, उसके आधार पर मंथन के लिए उनको कलाकारों की टीम बनाने में कोई परेशानी नहीं हुई. गिरीश कर्नाड और अमरीश पुरी के अलावा स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, कुलभूषण खरबंदा, मोहन अगाशे, साधु मेहर, राजेंद्र जसपाल, आभा और अंजलि जैसे नवोदित कलाकारों और स्थानीय नागरिकों को तैयार करके उन्होंने गुजरात के खेड़ा में डेरा डाल लिया और फिल्म की शूटिंग शुरू कर दी गई.

पोस्टर पर लिखा- 5 लाख किसान प्रोड्यूसर

आखिरकार पैकअप का समय आया. श्याम बेनेगल ने मंथन बनाकर तैयार कर दी. जब पोस्टर रिलीज किया गया तो इसने सबको चौंका दिया. सिनेमा के पोस्टरों पर आमतौर पर प्रोडक्शन हाउसेस के बैनरों के नाम लिखने का रिवाज रहा है. फिल्म के निर्माण में जो बैनर पैसे लगाता है, उसका नाम चस्पां होता है. लेकिन भारतीय फिल्म के इतिहास में पहली बार किसी फिल्म के पोस्टर पर प्रोडक्शन हाउस का नाम नहीं था, इसकी जगह लिखा धा- 5,00,000 Farmers Of Gujarat Presents. यानी गुजरात के 5 लाख किसान इस फिल्म के प्रोड्यूसर्स हैं. फिल्ममेकिंग की फील्ड में यह एक क्रांतिकारी कदम था. किसान फिल्म के प्रोड्यूसर बन गए.

म्हारे घर अंगना ना भूला ना… गीत वायरल

मंथन को भरपूर प्रशंसा मिली और सम्मान मिले. इससे पहले श्याम बेनेगल की अंकुर और निशांत को दर्शक कम ही मिले थे लेकिन मंथन ने सिनेमा घरों में क्रांति ला दी. हर तबके के लोग फिल्म को देखने पहुंचे. संगीतकार वनराज भाटिया के निर्देशन और गायिका प्रीति सागर की आवाज में गाया गीत- मेरो गाम कथा परे… जहां दूध की नदियां बहे… जहां कोयल कू कू गाये… म्हारे घर अंगना न भूलो ना… रातों रात पॉपुलर हो गया. इस गीत को लिखा था नीति सागर ने. यह गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि अमूल दूध ने इसे अपना स्लोगन बना लिया. यहां तक कि उस स्लोगन के साथ फिल्म में स्मिता पाटिल की फुटेज भी दिखाई जाती रही. दूरदर्शन पर यह अमूल दूध का स्थायी सुरीला विज्ञापन था. ये वही प्रीती सागर गायिका हैं जिन्होंने जूली फिल्म में माई हर्ट इज बीटिंग गाया था. और दोनों ही गीतों के लिए उनको फिल्मफेयर का अवॉर्ड मिला था.

इंडिया से बाहर भी फिल्म ने मचाई धूम

श्याम बेनेगल की मंथन को ऑस्कर भी भेजा गया और इसकी विशेष स्क्रीनिंग संयुक्त राष्ट्र में भी हुई. एक इंटरव्यू में श्याम बेनेगल ने बताया है कि यूएन में फिल्म के प्रदर्शन और प्रशंसा मिलने के बाद फिल्म की मांग एशियाई और यूरोपीय देशों में होने लगी. फिल्म का जहां-जहां प्रदर्शन हुआ, जिस भी अंतरराष्ट्रीय समारोह में गई, वहां दर्शकों के दिलों दिमाग को झकझोर दिया. इस प्रकार 5 लाख किसानों की मेहनत रंग लाई. उनकी चर्चा सात समंदर पार होने लगी और श्याम बेनेगल अंतरराष्ट्रीय स्तर के फिल्मकार कहलाए.

अब अहम सवाल ये हो जाता है कि क्या मंथन जैसा नजीर फिर मुमकिन है? जबकि हालात बदले नहीं हैं. किसान संघर्ष कर रहे हैं और फिल्ममेकर्स को विषय नहीं सूझ रहा है. क्या जनता के चंदे से ऐसी मिशन आधारित फिल्म बनाई जा सकती है? श्याम बेनेगल ने मंथन के अलावा भी अंतर्नाद जैसी फिल्म भी क्राउडफंड से ही बनाई. इन फिल्मों के जरिए उन्होंने तमाम फिल्ममेकर्स को सार्थक सिनेमा निर्माण का नया रास्ता दिखाया. लेकिन हजार करोड़ कमाने वाली होड़ के दौर में यह महज एक आदर्श विचार है या सपना?

श्याम बेनेगल और किसानों के ‘मंथन’ से जो निकला, क्या आज के फिल्ममेकर्स के लिए मुमकिन है?


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