Entertainment: Mrs. Review: सिलबट्टे की चटनी सी कहानी… कटती-पिसती-छिलती महिलाओं की दुनिया में उभरकर आती हैं सान्या मल्होत्रा – #iNA

‘पापा तो सिलबट्टे की ही चटनी खाते हैं… उनका मानना है कि सिलबट्टे पर चटनी पिसती है जबकी मिक्सी में चटनी कटती है. पिसी हुई चीज का स्वाद अलग होता है…’
‘आज से आप हमारी बेटी हैं…’ ये शब्द जब भी किसी बहू को कहे जाते हैं तो उसके भीतर बहुत कुछ चलता है. सबसे बड़ी बात ये होती है कि किसी ने उसे अपनी बेटी माना है… यानी उसका उस इंसान पर वैसा ही हक है जैसा उसका उसके अपने पिता पर होता है. अपने पिता अगर हमसे कहें कि बेटी ये चीज, ये बात, ये आदत गलत है तो बेटियां अक्सर नाक-भौं सिकोड़कर बैठ जाती हैं… खाना तो तब तक नहीं खाती जब तक पिता आकर कह ना दें कि हां मेरी मां गलती हो गई. लेकिन क्या ससुराल में भी ऐसा होता है. शायद नहीं…
अमुमन किसी फिल्म की जब शुरूआत होती है तो उसको मुद्दे पर आने में टाइम लगता है, लेकिन सान्या मल्होत्रा की फिल्म Mrs. आपको दूसरे सीन से ही बता देती है कि इसकी कहानी आपको कहां से कहां हिट करने वाली है. जिन्होंने मलयालम फिल्म द ग्रेट इंडियन किचन देखी है, ये फिल्म उनको शायद थोड़ी सी फींकी लग सकती है, लेकिन अगर आपने ये मलयालम फिल्म नहीं देखी तो दिल दिमाग के साथ कॉपी पेन लेकर बैठिएगा, आपको सान्या स्क्रीन से निकलकर बहुत कुछ समझाएंगी वो भी दबी सी आवाज में.
साधारण लेकिन काफी जरूरी कहानी
सान्या की ये फिल्म एक बहुत साधारण सी लेकिन काफी जरूरी कहानी कहती है. एक साधारण परिवार जब अपनी बेटी की शादी करन के लिए घर ढूंढ़ता है तो क्या देखता है? वो देखता है एक अच्छा कामकाजी लड़का, एक सभ्य परिवार बस… लेकिन सिच्यूएशन को उल्टा करिए. जब एक लड़के का परिवार लड़की ढूंढ़ता है वो क्या देखता है… शक्ल, सूरत, कमाई, कद, मोटापा, पतलापन, बाल, हाव-भाव, चाल-चलन… ये तो बस लड़की की फिजिकल बातें हैं इसके अलावा सबसे जरूरी बात जो एक पर्फेक्ट बहू में होनी चाहिए वो है खाना बनाना आना चाहिए. कुछ लोग और भी ज्यादा मॉर्डन होते हैं तो वो कहते हैं कि जी बस काम चलाऊ आना चाहिए. घर का खाना बना ले… हमें तो घर का खाना पसंद है, लेकिन वो घर का खाना कितना होना चाहिए…? ये भी तो एक बड़ा सवाल है. फिल्म की कहानी भी वैसी ही है.
ऋिचा का परिवार उसके लिए एक शरीफ घर का लड़का देखते हैं. ऋिचा पढ़ी-लिखी लड़की है जो अपने वाईफाई का पासवर्ड भी सिम्पल नहीं रखती. शादी होती है और ऋिचा अपना घर परिवार छोड़कर एक नए घर में आ जाती है ये सोचकर कि ये घर उसका है. पति महिलाओं की समस्याओं का डॉक्टर है. ससुर रिटायर्ड हैं, लेकिन दिनभर ‘काम’ में बिजी रहते हैं. काम क्या है… खाना खाना. वहीं एक सास भी हैं जिनका काम है ‘खाना बनाना और घर का ख्याल रखना’. सुनने में किसी आम से परिवार की कहानी, जहां हर किसी का ऐसा ही काम होता है, लेकिन जैसे-जैसे फिल्म की परते खुलती हैं वैसे-वैसे दिखती है सिलबट्टे में चटनी की तरह पिसती औरतों की आवाज और घड़ी की सुई की तरह चलती जिंदगी.
दिल पर चोट होगी और आपको पता भी नहीं चलेगा…
ऋिचा डांस करना चाहती है लेकिन अब वो ऐसा नहीं कर सकती. अगर वो डांस करेगी तो तवे से उतारकर गर्मा-गर्म फुल्का कौन देगा? कौन ससुर जी और पति के सारे कपड़े, चप्पल निकालकर देगा, कौन खाना खाने के वक्त चाय बनाएगा? धीरे-धीरे ऋिचा को समझ आता है कि वो कहां आ गई है और अब उसकी जिंदगी क्या होगी. फिल्म के डायलॉग्स बहुत आम हैं जो हम रोजमर्रा की लाइफ में बोलते हैं. जैसे जब मां गर्म रोटी रख रही हों और बहू कहे कि मां आप भी बैठ जाइए साथ खाते हैं तो ससुर कहें अरे इन्हें कहा जाना है? आसानी से चल रही फिल्म कब आपके दिल पर चोट करने लग जाती है आपको पता भी नहीं चलेगा. ऐसा जरूरी नहीं है कि हर महिला के साथ ये होता हो, लेकिन हम जिस समाज में रह रहे हैं वहां ये हम अपने आसपास होते जरूर देखते हैं. जो बातों इस फिल्म में आपके कानों पर पड़ती है वो कोई नई नहीं है लेकिन ये इतनी आम है इसलिए कई बार अनसुनी रह जाती है.
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‘पगलैट’ से मिसेज के बीच सान्या
बात करें एक्टिंग की तो सान्या अपनी एक्टिंग में फिल्म दर फिल्म निखरती जा रही हैं. उनकी फिल्म ‘पगलैट’ भी इसी स्तर की फिल्म थी, और क्या शानदार काम किया था उन्होंने उस फिल्म में. वो यहां भी उतनी ही शानदार लगती हैं. बाकी कलाकारों में भी सभी दमदार हैं. ऋिचा के पति के रोल में निशांत दाहिया का काम भी बहुत अच्छा है. लेकिन लाइम लाइट छीनी है कवलजीत सिंह ने. एक ऐसा ससुर जिसे हर चीज सही चाहिए. इस रोल में कवलजीत कमाल कर जाते हैं. फिल्म की सबसे खास बात है कि कुछ भी ओवर द टॉप नहीं लगता, ना कुछ प्रूव करने की कोशिश की गई है. फिल्म में हो रहे शोषण को दिखाने के लिए मारपीट, घरेलू हिंसा या फिर गाली गलौज का सहारा नहीं लिया गया है.
फिल्म देखते-देखते आप सान्या मल्होत्रा के किरदार के साथ हो रही हिंसा को खुद से जोड़कर देखने लग जाएंगे क्योंकि ये शारीरिक नहीं मानसिक और भावनात्मक हिंसा है. ये फिल्म असल में हर पुरुष के लिए है. जो ये कहते हैं कि महिला को समझना मुश्किल है, ये फिल्म उन्हें बहुत ही शांती से टेबल पर बैठाकर एक-एक डिश के साथ एक-एक बात समझाती है. यहां सबसे समझने वाली बात ये है कि पूरी फिल्म में मौजूद मेल कैरेक्टर्स भी इस बात को नहीं समझ पाते कि वो परिवार के नए सदस्य का असल में शोषण कर रहे हैं. राइटर डायरेक्टर ने इसी पुरुषवादी सोच को दिखाने के लिए एक पूरी फिल्म बनाई है. इसे डायलॉग से समझाने के बजाय छोटी-छोटी घटनाओं से समझाया गया है और यही इसी फिल्म की खासियत है.
Mrs. Review: सिलबट्टे की चटनी सी कहानी… कटती-पिसती-छिलती महिलाओं की दुनिया में उभरकर आती हैं सान्या मल्होत्रा
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