Entertainment: Popcorn का पिक्चर से है नाता पुराना… पहले रोटी अब जीएसटी का है ज़माना – #iNA

अपने देसी मक्के का संबंध कभी रोटी, साग, शलजम और मां से था. मक्के दी रोटी और सरसों दा साग… का स्वाद निराला है. अगर यह मां के हाथों का बना हो तो सोने पे सुहागा. भले ही यह पंजाब के प्रिय भोजन के तौर पर विख्यात हो लेकिन पंजाबी गीतों की तरह ही आज यह पूरे देश की जुबान पर चस्पां है. इसी मक्के को जब नमक के साथ फ्राई किया जाता है तो सफेद फूलों की तरह पॉप करता है यानी फुदकता है. शायद पॉप कल्चर शब्द इसी से बना होगा, जो फुदके! बाद में तो पॉपकॉर्न कल्चर भी आ गया. बहरहाल इसको खाने के अपने ही मजे हैं. ना छिलका, ना बीज, न टपकने वाला तरल. स्वाद अनोखा और चटखीला भी. चूंकि पॉपकॉर्न खाना मनोरंजक होता है, टाइम पास हो जाता है इसीलिए शायद आगे चलकर इसका रिश्ता एंटरटेनमेंट से भी हो गया और मूवी थियेटर का सबसे लोकप्रिय और सुलभ व्यंजन बन गया.

किशोरावस्था में जब सिनेमा देखने के आदी हुआ करते थे तब सिंगल थियेटरों में इंटरवल के समय मूंगफली से लेकर अखबारी कागजों के दोने में ऐसे देसी मक्के के दाने खूब खरीदे और खाए थे, लेकिन महानगरों के मल्टीप्लेक्स में सर्विस टैक्स के साथ बिकने वाला यही व्यंजन पॉपकॉर्न कहलाने लगा. अपन जैसे आधे शहरी तब पॉपकॉर्न से ठीक से रिलेट नहीं कर पाते थे. कुंठा जाग जाती थी. ऐसा लगता था जैसे यह अमीरों का व्यंजन है. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इस व्यंजन का अपना-सा मनोरंजन है. बाद में पता चला पॉपकॉर्न का सिनेमा से काफी पुराना नाता है. सिनेमा का आविष्कार 1895 में हुआ जबकि पॉपकॉर्न मशीन 1893 में आ गई.

इंटरवल का व्यंजन पॉपकॉर्न

यकीन मानिए पॉपकॉर्न पिक्चर को सुपर-डुपर हिट कराने वाला अनोखा और दिलचस्प व्यंजन है. कई बार काफी बोर करने वाली फिल्में भी पॉपकॉर्न की वजह से हिट हो जाती है. स्वाद दर्शकों मल्टीप्लेक्स तक खींच ले आता है. बाद में कह पाना मुश्किल होता है कि फिल्म अच्छी थी या पॉपकॉर्न ज्यादा स्वादिष्ट था. लेकिन अब वही पॉपकॉर्न जीएसटी के साथ आ गया है. पॉपकॉर्न कॉरपोरेशन की शक्ल ले चुका है. ऐसे में जानना दिलचस्प है कि सिनेमा हॉल में पॉपकॉर्न ने कब और कैसे अपनी एंट्री मारी. आज हालत तो ये है कि पॉपकॉर्न के बिना फिल्मी मस्ती की बात ही बेमानी है.

पॉपकॉर्न इंटरवल का सबसे प्रिय व्यंजन है, यह बात हम नहीं कह रहे, सारी दुनिया इसकी दीवानी है. जीएसटी लगते ही इसके उद्योग पर भी मुहर लग गई. वह शख्स जो पॉपकॉर्न विक्रेता है, अब शान से खुद को पॉपकॉर्नपति कह सकता है. पॉपकॉर्न के साथ अगर कोल्ड ड्रिंक भी हो जाए तो क्या कहने! सिनेमा का मजा दोगुना. हर सीन में थ्रिल, हर शॉट में एक्शन और रोमांस. जाहिर है इसका कुछ तो इतिहास होगा, शर्तिया वो रोचक ही होगा. तो चलिए इतिहास के पन्ने पलटते हैं.

जहां सिनेमा, वहीं पॉपकॉर्न

बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक का समय था. सिनेमा फ्रांस से निकल कर अमेरिका में भी छा चुका था. तब अमेरिकी शहरों में भी सिंगल थियेटर का चलन था. मूक फिल्में लगती थीं. लेकिन जल्द ही दर्शक मूक फिल्मों से बोर होने लगे. फिर सिनेमा निर्माण के तकनीक में परिवर्तन आया. दर्शकों की बोरियत को दूर करने और सिनेमा के धंधे को आगे बढ़ाने के लिए टॉकीज का दौर विकसित हुआ तो उसी के अनुरूप पिक्चर हॉल आधुनिक बनने लगे.

मूक फिल्मों के जमाने में जो दर्शक इंटरवल के दौरान स्ट्रीट फूड्स पर निर्भर हुआ करते थे, परंतु मॉडर्न सिनेमा घरों में स्ट्रीट फूड्स को लाने की मनाही कर दी गई ताकि मूवी थियेटर्स को अंदर से साफ-सुथरा रखा जा सके. लेकिन बिना स्वादिष्ट व्यंजन के सिनेमा का मजा किरकिरा हो रहा था. अंग्रेजों को मनोरंजन का डबल डोज चाहिए था. सिनेमा और खाना-पीना साथ-साथ. ऐसे में पॉपकॉर्न की खोज एक विकल्प के तौर पर की गई, जिसका पहला मकसद हॉल को गंदा होने से बचाना था. जल्द ही टॉकीज कल्चर शुरू होने के बाद फिल्में देखना अंग्रेजों की आदत का हिस्सा हो गया और इंटरवल में पॉपकॉर्न खाने का चलन बन गया.

पॉपकॉर्न से बढ़ा फिल्मों का कारोबार

कहते हैं पॉपकॉर्न के चलन से फिल्मों का कारोबार खूब बढ़ा. पॉपकॉर्न फिल्म उद्योग को आगे बढ़ाने में काफी सहायक साबित हुआ. तीसरे और चौथे दशक के दौरान अमेरिकी सिनेमा उद्योग में जब नवीनता के अभाव में थोड़ा ठहराव आ गया था तब मूवी थिएटर मालिकों ने पॉपकॉर्न बेचने के धंधे को भी अपना लिया. यह आय का नया स्रोत बन गया. फिल्म के टिकट के साथ इसकी बिक्री शुरू कर दी गई स्पेशल ऑफर के साथ. चूंकि फिल्में फैशन और फूड ट्रेंड्स को बढ़ावा देती है लिहाजा पॉपकॉर्न अमेरिकी का पसंदीदा नाश्ता ही बन गया.

सन् 1893 में चार्ल्स क्रेटर ने जब इलेक्ट्रिक पॉपकॉर्न मशीन का आविष्कार किया होगा तब शायद ही उसे मालूम रहा होगा कि यह सिनेमा की दुनिया में क्रांति लाने वाला साबित होगा. बाद में इसी मशीन की मदद से पॉपकॉर्न मेले-ठेले और रेस्टोरेंट से लेकर दुनिया भर के सिनेमा हॉल तक पहुंच गया. चूंकि इसे बनाना और खाना बहुत ही सरल होता है, इसलिए धीरे-धीरे यह अमेरिका से निकलकर फ्रांस, ब्रिटेन, इटली जैसे पश्चिमी देशों से होता हुआ भारत जैसे एशियाई मुल्कों में भी पहुंच गया और मनोरंजन का व्यंजन बन गया.

कहते हैं सेकंड वर्ल्ड वॉर के समय इसकी लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ी. चीनी की राशनिंग की वजह से कैंडी प्रोडक्ट्स महंगे हो गए थे जबकि पॉपकॉर्न की राशनिंग नहीं हुई, ऐसे में यह लोगों के बीच आसानी से उपलब्ध रहा. विकसित देशों में 50 के दशक के बाद पॉपकॉर्न मूवी थियेटर का जरूरी हिस्सा बन गया. आज तो पॉपकॉर्न टाइम और पॉपकॉर्न न्यूज जैसे कई शो भी हिट हो रहे हैं.

मिलेनियम ईयर और पॉपकॉर्न कल्चर

भारत में पॉपकॉर्न का रिवाज पहले केवल महानगरों तक सीमित था लेकिन साल 2000 मिलेनियम ईयर के बाद देश भर में जैसे ही मल्टीप्लेक्स और मेगा मॉल की दीवारें खड़ी होती गईं, पॉपकॉर्न का बिजनेस परवान चढने लगा. यही वो समय था, जब भारत में पॉपकॉर्न कल्चर शुरू होता है. यह डिस्को और पॉप से भी दो कदम आगे था. अब उसी पॉपकॉर्न को सरकार ने जीएसटी के दायरे में रख दिया है. बाजार में तरह तरह के पॉपकॉर्न आ गए हैं लिहाजा जैसा फ्लेवर वैसा ही टैक्स भी. गौरतलब है कि मल्टीप्लेक्सेस में अब तक पॉपकॉर्न पर सर्विस टैक्स लगते थे, लेकिन अब जीएसटी लगेगा. यानी पॉपकॉर्न के स्वाद के साथ अगर आप फिल्में देखना चाहते हैं तो मनोरंजन का अलग मजा भी चखने के लिए तैयार रहें.

Popcorn का पिक्चर से है नाता पुराना… पहले रोटी अब जीएसटी का है ज़माना


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