दुनियां – अफगानिस्तान से सीरिया तक… मोदी सरकार ने तख्तापलट करने वालों को ऐसे किया हैंडल – #INA

पश्चिम एशिया के इस्लामिक मुल्क सीरिया में तख्तापलट हो चुका है. राष्ट्रपति बशर अल-असद इस्तीफा देकर परिवार के साथ रूस में राजनीतिक शरण ले चुके हैं और अब राजधानी दमिश्क में हयात तहरीर अल-शाम (HTS) के नेतृत्व वाले विद्रोही गुटों का नियंत्रण है. इस मोड़ से सीरिया का भविष्य किस ओर जाएगा यह किसी को मालूम नहीं है, लेकिन यह तय है कि अब मिडिल ईस्ट के सियासी समीकरण बदलने वाले हैं.
सीरिया मध्य-पूर्व में अपनी भौगोलिक उपस्थिति के चलते दुनिया के उन सभी देशों के लिए अहम रहा है जो इस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी को मजबूत बनाना चाहते हैं. अब तक सीरिया, ईरान और रूस के प्रभाव में रहा है लेकिन HTS लीडर अबु मोहम्मद अल-जुलानी ने साफ कर दिया है कि अब सीरिया, ईरान के इशारों पर नहीं चलेगा. सीरिया की ईरान से दूरी यकीनन अमेरिका और इजराइल को फायदा पहुंचाएगी लेकिन सत्ता परिवर्तन का असर भारत के साथ संबंधों पर भी पड़ सकता है.
हालांकि मोदी सरकार ने जिस तरह अफगानिस्तान में तालिबान शासन को हैंडल किया है उससे उम्मीद है कि भारत-सीरिया के संबंधों में भी कोई बड़ा फर्क नहीं आएगा.
सीरिया में बदलेंगे समीकरण?
दमिश्क के साथ नई दिल्ली के ऐतिहासिक, सांस्कृति और सभ्यतागत संबंध रहे हैं, खास तौर पर बशर अल-असद के शासन के दौरान दोनों देशों के रिश्ते और मजबूत हुए. फिलिस्तीन का मुद्दा हो या गोलान हाइट्स पर इजराइली कब्जे का भारत ने कई मौकों पर असद सरकार का साथ दिया. UN ने सीरिया पर जब प्रतिबंध लगाए तब भारत ने इन प्रतिबंधों का समर्थन करने से इनकार कर दिया, साथ ही कोरोना महामारी के दौरान मानवीय चिंताओं का जिक्र करते हुए भारत ने प्रतिबंधों में छूट देने की भी मांग की. भारत ने हमेशा किसी भी देश में विदेशी ताकतों के दखल के खिलाफ सिद्धांत की वकालत की है. यही वजह है कि असद शासन में सीरिया ने भी कश्मीर मुद्दे पर भारत के रुख का समर्थन किया और इसे भारत का अंदरूनी मसला माना.
उधर जब दमिश्क से असद शासन का खात्मा हुआ तब भी मोदी सरकार ने सधे हुए शब्दों का इस्तेमाल कर स्पष्ट बयान जारी किया. भारत ने सीरिया की संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और एकता की रक्षा के लिए सभी पक्षों के मिलकर काम करने की जरूरत पर जोर दिया. भारत ने कहा कि वह सीरिया के सभी वर्गों के हितों और आकांक्षाओं का सम्मान करने वाले शांतिपूर्ण और समावेशी राजनीतिक प्रक्रिया का समर्थन करता है. यानी साफ है कि मोदी सरकार सीरिया की जनता का हित चाहती है और ऐसी स्थिति में अगर विद्रोही गुटों की अगुवाई वाली सरकार बनती है तो उसके लिए भी भारत को नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं होगा.
भारत ने सीरिया के विकास से जुड़े कई कामों में बड़ी मदद की है. पावर प्लांट के लिए 240 मिलियन डॉलर की क्रेडिट लाइन के अलावा सीरिया के IT इंफ्रास्ट्रक्चर, स्टील प्लांट मॉर्डनाइजेशन, ऑयल सेक्टर में निवेश के साथ-साथ टेक्सटाइल, फार्मा और चावल का निर्यात भी नई दिल्ली से दमिश्क को किया जाता है. भारत ने मुश्किल वक्त में भी सीरिया की जनता को राहत मिलने वाले कदम उठाए हैं, लिहाजा सीरिया में बनने वाली नई सरकार को न केवल कूटनीतिक बल्कि व्यापारिक हितों का भी ध्यान रखना होगा, ऐसे में भारत एक मजबूत सहयोगी साबित हो सकता है.
तालिबान को कैसे हैंडल कर रही सरकार?
अफगानिस्तान में तालिबान राज को भारत ने कभी अधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी. 2001 से 2021 के बीच जब तालिबान सत्ता से बाहर रहा तो भारत ने पड़ोसी मुल्क में बड़ा निवेश किया, लेकिन 3 साल पहले जब अचानक तालिबान की वापसी हुई तो माना जाने लगा कि भारत के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. लेकिन इस चुनौती से निपटने के लिए मोदी सरकार ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और तालिबान सरकार के साथ संपर्क स्थापित करने का फैसला किया.
मोदी सरकार की यह रणनीति कारगर साबित हुई, अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के दूसरे कार्यकाल में भारत के प्रति रवैया बदला है. पाकिस्तान ने हमेशा इस क्षेत्र में तालिबान का समर्थन किया लेकिन बावजूद इसके तालिबान ने पाकिस्तान को न तो ज्यादा तवज्जो दी न ही उसके एजेंडे का समर्थन किया. हाल ही में तालिबानी हुकूमत ने 3 दशक में पहली बार अपनी सीमा का मूल्यांकन किया तो POK पर पाकिस्तान के दावे को खारिज कर दिया.
मौजूदा समय में अफगानिस्तान के अलग-अलग राज्यों में भारत के करीब 500 प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं. तालिबान सरकार बार-बार भरोसा दिलाने की कोशिश में है कि उसे विवाद या टकराव नहीं बल्कि अच्छे संबंध चाहिए. यानी साफ है कि जिस तालिबान की वापसी पर हाय-तौबा मची हुई थी, वह भारत की अहमियत समझ चुका है और मोदी सरकार ने अपनी रणनीतिक के जरिए उसे मजबूर कर दिया है कि वह भारत के साथ सकारात्मक संबंध बनाए.
श्रीलंका में भी दिखा कूटनीतिक असर
श्रीलंका, क्षेत्रफल के लिहाज से एक छोटा द्वीप देश है लेकिन भारत के लिए यह रणनीतिक तौर पर काफी अहमियत रखता है. 2022 में जब आर्थिक संकट के कारण श्रीलंका में तख्तापलट हुआ तब भी भारत ने अपने पड़ोसी की आगे बढ़कर मदद की थी. भारत ने श्रीलंका को 4.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की आर्थिक और मानवीय सहायता दी थी. आर्थिक संकट के 2 साल बाद सितंबर में हुए राष्ट्रपति चुनाव में जब चीन समर्थक वामपंथी लीडर अनुरा दिसानायके की जीत हुई तो चिंता की लकीरें फिर गहराने लगीं, लेकिन मोदी सरकार इस स्थिति से निपटने की तैयारी पहले ही कर चुकी थी.
श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव से पहले ही मोदी सरकार के बुलावे पर अनुरा दिसानायके दिल्ली दौरे पर आए थे, उन्होंने यहां विदेश मंत्री एस जयशंकर और NSA अजित डोभाल से मुलाकात की थी. इन मुलाकातों का असर ये हुआ कि अनुरा दिसानायके, जिनकी पार्टी को भारत विरोधी माना जाता था, उन्होंने अपने एक बयान से साफ कर दिया कि वह भारत के साथ मिलकर काम करने के इच्छुक हैं और श्रीलंका के समुद्र, जमीन या हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल भारत और क्षेत्रीय सुरक्षा के खिलाफ नहीं होने देंगे.
बांग्लादेश में तख्तापलट के बाद संबंधों में बदलाव
अगस्त के शुरुआती हफ्ते में ही भारत के पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में भी तख्तापलट हुआ. आरक्षण विरोधी छात्र आंदोलन के चलते शेख हसीना सरकार सत्ता से बेदखल हो गई और सेना ने मोहम्मद यूनुस की अगुवाई वाली अंतरिम सरकार का गठन कर दिया. मोहम्मद यूनुस नोबेल विजेता हैं लेकिन उनकी सरकार के फैसलों पर जमात और कट्टरपंथी गुटों का दबाव ज्यादा नज़र आता है. शेख हसीना की सरकार में बांग्लादेश और भारत एक-दूसरे के बेहद करीबी और मजबूत सहयोगी रहे हैं लेकिन अंतरिम सरकार ने पाकिस्तान से नजदीकी बढ़ानी शुरू कर दी.
हालांकि बावजूद इसके बांग्लादेश के लिए भारत को नज़रअंदाज कर पाना मुमकिन नहीं हो रहा है. बांग्लादेश में बिजली संकट हो या अनाज की कमी, अंतरिम सरकार को इससे निपटने के लिए भारत से मदद लेनी ही पड़ रही है. बांग्लादेश जिस कपड़ा उद्योग की बदौलत फर्श से अर्श पर पहुंचा वह अब गंभीर संकट का सामना कर रहा है, अंतरिम सरकार को 4 महीने हो चुके हैं लेकिन देश में निष्पक्ष, स्वतंत्र चुनाव कराने की सुगबुगाहट भी सुनाई नहीं पड़ रही है.
उधर बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा के मुद्दे को लेकर भारत सरकार ने कई बार अपनी चिंता जाहिर की है, इसे लेकर अब ब्रिटेन और अमेरिका से भी आवाजें उठनी लगी हैं. अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी बांग्लादेश में हिंदुओं की स्थिति को लेकर चिंता जताई थी और 20 जनवरी को वह ओवल ऑफिस में कार्यभार संभालने जा रहे हैं. लिहाजा यह माना जा सकता है कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के लिए लंबे समय तक इस रवैये को कायम रखना संभव नहीं होने वाला है.

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सौजन्य से टीवी9 हिंदी डॉट कॉम

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