Nation- नेताजी ‘नरभसा’ गए हैं क्या… चुनावी बयार में जुबान लड़खड़ाए, कदम काहे डगमगाए!- #NA

गब्बर सिंह और ठाकुर की शोले में अंग्रेजों के जमाने के एक जेलर होते थे. चीखते हुए उनके पांव फिसल जाते थे. जेल के कोने-कोने में उनके जासूस फैले थे. तीसमार खां से कम नहीं थे. एक मसखरा तानाशाह. उनकी मूंछ हिटलर डिजाइन की थी. सुरंग खोदने के सामान खोज निकालते थे. इधर हमारे कुमारे साहब दिलीप कुमार के जमाने के नेता हैं. थोड़े मॉडर्न और मोडिफॉयड हैं. चाचा कहे जाते हैं. नेचर से ट्रेडेजी किंग नहीं बल्कि पॉलिटिकली स्विंग हैं. इधर या उधर चाहे जिधर जाते हैं, स्विंग कर जाते हैं. चाहे जितनी बार इधर-उधर हो लें, लेकिन हर बार कसम खाते हैं अब हम इधर-उधर नहीं करेंगे. जहां से चले थे, वहीं रहेंगे. बीच में रास्ता भटक गये थे.

चलिए मान लेते हैं ये आपकी तीसरी बार आखिरी कसम है. अंतिम वक्त में बहुत से लोग घर वापसी करते हैं लेकिन जनता बिचारी को मारे गये गुलफाम क्यों बना दिया. कभी भरोसा कुमार कहे जाते थे. लेकिन अब कुमारे साहब की हालत देखकर लगता है फिर से नरभसा गये हैं. नरभसाना समझते हैं न आप! बिहार में लोग अक्सर नरभसा जाते हैं. जो वहां सालों से रह रहे हैं वे भी नरभसा जाते हैं. बाहर से जाने वाले भी नरभसा जाते हैं. यहां नरभसाने का अपना इतिहास है. यह परंपरा का हिस्सा बन चुका है. संस्कृति और विरासत की देन है. जो न नरभसाये क्या खाक बिहारी कहलाये. इस लिहाज से कुमारे साहब परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं.

सावधान मुद्रा में रिटायरमेंट की फीलिंग

नेताजी इतने नरभसा गए हैं कि सावधानों के बीच विश्राम करते हैं. मुस्कान पर काबू नहीं रख पाते. जज्बात बहकने लगता है. शायद नेताजी को लगता है ज्यादा देर कर गंभीर चुप रह गये तो लोगों से कम्यूनिकेशन टूट जायेगा. ऐसे में राष्ट्रगान के बीच में ही वार्तालाप शुरू कर देते हैं. हैरत तो ये कि इस पूरे वाकये पर जब विवाद होता है तब भी नहीं सुधरते. विधानसभा के अंदर विपक्षी दल की महिला नेता के बारे में बेलगाम बोलने लग जाते हैं. अब इ… अब उ… ना जाने क्या क्या…! अब इसको नरभसाना नहीं कहें तो क्या कहें. कभी जुबान लड़खड़ाती है तो कभी कदम डगमगा जाते हैं. ये कौन सा मोड़ है उम्र का…! वैसे ये तकाजा उम्र का है या फीडबैक का. रिटायरमेंट वाली फीलिंग काहे दिखा रहे हैं.

तो नेताजी कुमारे साहब नरभसाने वाला अभिनय काहे कर रहे हैं. कोई पूर्वाभास हो गया है क्या! अबकी बार चुनाव में चलेगी कैसी बयार! ऊंट किस करवट बैठेगा! इसलिए अभी से ही नरभसाने की कोशिश शुरू कर दी है ताकि बाद में कोई कुछ ना कहे.

बिहार में लोग कैसे नरभसा जाते हैं?

चलिये लगे हाथ अब ये भी बता देते हैं कि बिहार में लोग कैसे नरभसा जाते हैं. इस शब्द का अपना रोचक इतिहास है. हिंदी साहित्य की दुनिया में भी इसकी बहुत खातिरदारी हुई है. हिंदी के एक बड़े लेखक हुआ करते थे- शरद जोशी. नब्बे के दशक में वो भी बिहार की राजधानी पटना जाकर नरभसा गये थे. उनको पटना में अपने गंतव्य तक जाने में परेशानी हुई तो आस-पास के लोगों ने उन पर ताना कसा- नरभसा गये हैं क्या! सुनकर अकबकाये, ये क्या होता है. दिल्ली लौटकर उन्होंने अपने अखबारी कॉलम में इसके बारे में लिख भी मारा.

ये है बिहार का नर्वस सिस्टम

हिंदी भाषाशास्त्री के सामने जोशी जी ने इस शब्द का अर्थ पूछा- कि नरभसाना क्या होता है. संयोगवश वह भाषाशास्त्री भी बिहार की भाषा और बोली से वाकिफ थे. उन्होंने कहा- अंग्रेजी का शब्द है- नर्वस (Nervous), वही नर्वस सिस्टम वाला. बिहार के लोग किसी भी शब्द पर इतना प्यार बरसाते हैं कि उससे रस टपकने लगता है फिर वह शब्द सिस्टम पर पसर जाता है. इस रासायनिक प्रक्रिया में नर्वस शब्द नरभस हो जाता है और लोग हक्का बक्का भौंचक्का बदहवास हुए लोगों पर प्यार-दुलार लुटाते हुए कह देते हैं- नरभसा गये हैं क्या!

आशा करता हूं आप समझ गये होंगे कि नरभसाना क्या होता है? लोग नरभसा कैसे जाते हैं या कि नेताजी कुमारे साहब भी इन दिनों क्यों नरभसा गये हैं? बिहार के नर्वस सिस्टम के क्या हाल हैं! आमीन.

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नेताजी ‘नरभसा’ गए हैं क्या… चुनावी बयार में जुबान लड़खड़ाए, कदम काहे डगमगाए!


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