Nation- ये दिल्ली अगर मिल भी जाए तो क्या है! ये पॉल्यूशन, ये कोलाहल, ये हलाहल की दुनिया…- #NA
![Nation- ये दिल्ली अगर मिल भी जाए तो क्या है! ये पॉल्यूशन, ये कोलाहल, ये हलाहल की दुनिया…- #NA Nation- ये दिल्ली अगर मिल भी जाए तो क्या है! ये पॉल्यूशन, ये कोलाहल, ये हलाहल की दुनिया…- #NA](http://images.tv9hindi.com/wp-content/uploads/2025/02/delhi-dangal.jpeg)
असली दिल्ली की चिंता किसे है?
ऊर्दू के मशहूर शायर और फिल्म गीतकार साहिर लुधियानवी कह गए- ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है… लेकिन आज राजधानी के हालात देख मैं कहना चाहता हूं कि ये दिल्ली अगर मिल भी जाए तो क्या है! साहिर लिखते हैं- ये महलों, ये तख़्तों, ये ताजों की दुनिया… मैं कहना चाहता हूं- ये कूड़े, ये कोलाहल, ये हलाहल की दुनिया… इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली अपनी शान खो चुकी है, अब यहां लोग केवल अपनी-अपनी शान के लिए संग्राम कर रहे हैं. दिल्ली हर तरह से बदहाल है, ऐसी दिल्ली की सत्ता अगर मिल भी जाए तो क्या है… वास्तव में दिल्ली की परवाह किसे है, बस अपनी पौ बारह होनी चाहिए. गोयाकि दिल्ली अपने आप में एक अलग दुनिया है. यहां देश का हर भाग है, कहीं यमुना में झाग तो कहीं बिना धुआं के भी आग है. मिडिल क्लास, अपर क्लास, लोअर क्लास, खनखनाती बोतलें और टूटते गिलास… सब यहीं लरजते हैं. वास्तव में दिल्ली एक सोसायिटी है, लेकिन राजनीति ने इसे वैरायिटी सिटी बना दिया है.
दिल्ली के इतिहास की पहचान संस्कृति और सत्ता से है लेकिन आज की तारीख में संस्कृति खुद यहां से दिल्ली दूर हो चुकी है, उसकी जगह चारों तरफ केवल राजनीति का रायता फैला हुआ है. फिल्मवालों और शायरों ने कहा कि दिल्ली है दिल हिंदुस्तान का… ये तो सूरत है सारे जहान का… काश! दिल्ली भी दुनिया के तमाम बड़े मुल्कों की राजधानी की तरह कॉस्मोपॉलिटन सिटी होती लेकिन सियासतदां ने दिल्ली वालों को दिल का मरीज बना दिया. प्रदूषण केवल सड़कों पर नहीं, यहां पॉलिटिक्स का एक्यूआई भी हाई है. काश! इनके खिलाफ भी ग्रैप की गाइडलाइन जारी की जाती. क्या हमारे नेता मास्क लगाकर एक-दूसरे पर तीर तलवार नहीं चला सकते? दिल्ली की गलियों की समस्याएं, दिल्ली की कच्ची कॉलोनियों की बिजली और पानी, दिल्ली की आबोहवा की दुश्वारियां, अवैध प्रवास की भेड़ियाधसान सब सामने मुंह बाये खड़ी हैं. ऐसी दिल्ली अगर मिल भी जाए तो क्या है!
दिल्ली का अपना क्या है!
दिल्ली ऐसा शहर, जिसका अपना कुछ भी नहीं. न भाषा-बोली ,न कला-संस्कृति और ना हवा-पानी. दिल्ली उधार का पानी लेती है, शिमला-कश्मीर में बर्फबारी हो तो दिल्ली छींकती है. पंजाब-हरियाणा में पराली जले तो दिल्ली में प्रदूषण फैलता है. दिल्ली ऐसी जिसके शासन की डोर खुद यहां के शासक के पास भी नहीं होती. ऐसी दिल्ली अगर मिल भी जाए तो क्या है! ऐसे में आज मुझे साहिर बार-बार याद आते हैं, उनकी शायरी रह-रहकर रोमांचित करती हैं.
दशकों पहले उन्होंने यह नज़्म लिखी थी- गुरुदत्त ने अपनी फिल्म ‘प्यासा’ में इसे शामिल किया और दुनियादारी के फलसफे पर चस्पां कर दिया. दुनिया कितनी फरेबी है, लोग यहां लड्डू सरीखे दिखते हैं लेकिन भीतर से कितने जलेबी की तरह हैं, इसका नजीर और नजारा सालों बाद भी आम है. उन्होंने कहा- ये इंसां के दुश्मन समाजों की दुनिया, ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया… ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है… आज दिल्ली की संस्कृति के दुश्मन खुद दिल्लीवाले हो चुके हैं.
विकसित दिल्ली कब तक?
साहिर आगे लिखते हैं- हर इक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी/निगाहों में उलझन दिलों में उदासी/ये दुनिया है या आलम-ए-बद-हवासी… दिल्ली अब फ्लाईओवर्स का शहर है, यूपी से हरियाणा तक अंडरग्राउंड और एलिवेटेड मेट्रो का नगर है फिर भी आम लोगों के लिए रिहाइश एक कहर है. विकसित भारत के नारों की गूंज के बीच दिल्ली ही अब तक विकसित नहीं हो सकी. दिल्ली के इतिहास पर कलम चलाने वाले इतिहासकारों ने इसके अस्तित्व के मिटने और बनने की अनेक कहानियां लिखी हैं.
दिल्ली कितनी बार उजड़ी, कितनी बार बसी लेकिन दिल्ली की मिली-जुली संस्कृति कभी नहीं मिटी. इतिहास में शासकों ने दिल्ली को कितनी बार लूटा दिल्ली के आम लोगों ने उसे फिर से बसाया. दिल्ली भी गुरुदेव के शब्दों में महामानव समुद्र है. देश की विभिन्न जातियां और संस्कृतियां यहां बसती हैं. यही इसकी मूल पहचान है, इन्हें अलग नहीं कर सकते.
चुनाव में पोस्टरों के प्रक्षेपास्त्र
दिल्ली का कॉन्ट्रास्ट भी अजीब है. देश में सबसे ज्यादा प्रतिव्यक्ति आया वाला शहर, सबसे अधिक रोजगारशुदा लोगों का शहर लेकिन सत्ता की बारी आते ही लोगों को यहां ‘फ्री’ में फांस लिया जाता है. फ्री-फ्री की होड़ देश में कहीं ऐसी नहीं, जितनी दिल्ली में देखने को मिलती है. वास्तव में ‘फ्री’ यहां एक तीर है, जिससे हर कोई घायल है. दिल्ली के कायाकल्प के बदले, राजधानी को एक मॉडल सिटी बनाने के बजाय कभी रामायण के प्रसंगों पर महाभारत होती है तो कभी फिल्मी पोस्टरों के प्रक्षेपास्त्र छोड़े जाते हैं. दिल्ली में दिल्ली की सेहत और सौंदर्य को छोड़कर हरेक मुद्दे पर बहस होती है.
दिल्ली में ही खोजेंगे दिल्ली
हिंदी के कवि श्रीकांत वर्मा ने मगध लिखा कि मगधवाले मगध को भूल चुके हैं. मैं मगध में खड़ा हूं और मगधवालों से मगध जाने का रास्ता पूछ रहा हूं. यकीनन दिल्ली अगर इसी तरह अपना इतिहास और शान खोती रही तो हमारी आने वाली पीढ़ी भी दिल्ली में खड़े होकर दिल्लीवालों से पूछेंगे- भइया, दिल्ली कहां है! दिल्ली में कोई भी पार्टी सत्ता में हो- इल्तिजा यही है दिल्ली की पहचान को खोने मत देना, दिल्ली की हर दास्तां को दिल से लगाए रखना. क्योंकि बतर्ज ज़ौक़ एक बार आने के बाद कोई नहीं जाना चाहता यहां की गलियां छोड़कर.
ये दिल्ली अगर मिल भी जाए तो क्या है! ये पॉल्यूशन, ये कोलाहल, ये हलाहल की दुनिया…
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