Political -अटल बिहारी वाजपेयी ने BJP को खत्म करने के बारे में सोच लिया था, जानिए इसके पीछे की पूरी कहानी – #INA
आज बीजेपी जिस मुकाम पर है, उसमें यह यकीन करना मुश्किल है। लेकिन, यह सच है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार बीजेपी को खत्म करने के बारे में सोचा था। तब वह पार्टी के अध्यक्ष थे। दरअसल, बीजेपी की शुरुआत कांग्रेस के विकल्प के रूप में हुई थी। लेकिन, 1984 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा था। बीजेपी सिर्फ दो सीटें जीत सकी थी। खुद वाजपेयी को ग्वालियर सीट से हार का मुंह देखना पड़ा था। वह माधवराव सिंधिया से मुकाबले में हार गए थे। इसके बाद वाजपेयी ने 1985 में 12 सदस्यों वाला एक स्पेशल वर्किंग ग्रुप बनाया। ग्रुप को पार्टी के कामकाज की समीक्षा करने और कुछ बड़े सवालों का जवाब तलाश करने को कहा गया।
एक सवाल यह था कि क्या बीजेपी शुरू करने का फैसला गलत था और क्या इसे खुद को खत्म कर अपने पुराने जनसंघ के अवतार में लौट जाना चाहिए? शुरुआती दो सालों में BJP ने संगठन खड़ा करने पर फोकस किया था। जैसा कि एलके आडवाणी ने 1983 में लिखा था कि संगठन का मुख्य काम नए सदस्य बनाना, कमेटी गठित करना और पार्टी का संगठनात्मक ढांचा खड़ा करना था। इसमें पंचायत के लेकर संसद तक का स्तर शामिल था। शुरुआती दो सालों में बीजेपी के प्राथमिक सदस्यों की संख्या 22 लाख से बढ़कर 39 लाख हो गई। पार्टी ने 1983 तक 80 फीसदी जिलों में अपनी जिला कमेटी बना ली थी। सिर्फ उत्तरपूर्व अछूता था। इसके बावजूद इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुए लोकसभा चुनावों में BJP का सफाया हो गया था। वाजपेयी ने तब कृशनलाल शर्मा के नेतृत्व में एक वर्किंग ग्रुप बनाया। इसमें प्रमोद महाजन भी शामिल थे। ग्रुप को दो सवालों के जवाब देने थे:
1. क्या BJP की हार की वजह 1977 में जनता पार्टी में जनसंघ के विलय का फैसला और फिर 1980 में जनता पार्टी से अलग हो होना था? क्या ये दोनों फैसले गलत थे?
2. क्या BJP को फिर से पीछे जाना चाहिए और जनसंघ को दोबारा जीवित करने की कोशिश करनी चाहिए?
वर्किंग ग्रुप ने भविष्य के लिए एक एक्शन प्लान तैयार किया। वैचारिक, संगठनात्मक, आंदोलनकारी, रचनात्मक और चुनावी सहित सभी मोर्चों के लिए प्लान तैयार हुआ। वर्किंग ग्रुप ने देशभर में 4,000 पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच सर्वें किया। ग्रुप ने देशभर में राज्यों का दौरा कर BJP से सहानुभूति रखने वाले 1000 लोगों से बातचीत की। दोनों बड़े सवालों के जवाब ‘ना’ में मिला। जनता पार्टी से अलग होने और बीजेपी बनाने के फैसले को कार्यकर्ताओं ने सही बताया। यह बीजेपी के लिए मील का पत्थर साबित हुआ।
वर्किंग ग्रुप ने कई कमियां बताई। ग्रुप ने यह पाया कि नेतृत्व और जमीनी स्तर पर संर्पक के मामले में बड़ी खाई है। कार्यकर्ताओं को राजनीतिक, आर्थिक, वैचारिक और संगठन से जुड़े मसलों के बारे में व्यवस्थित तरीके से बताने के लिए प्रशिक्षण का अभाव है। देश से जुड़े मसलों पर राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन की कमी है। महिलाओं की प्रतिक्रिया कमजोर है। वर्किंग ग्रुप ने यह भी पाया कि बीजेपी के सामने वजूद का खतरा भी मंडरा रहा है, क्योंकि यह अपनी मुख्य विचारधारा से भटक गई है। यह विचारधारा खुद को ऐसी पार्टी के रूप में पेश करने का था जो दूसरे दलों से अलग है। यह महसूस किया गया कि पार्टी को समय के साथ चलना होगा और खुद का एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में पेश करने की कोशिश करनी होगी।
तब एलके आडवाणी के नेतृत्व में BJP हिंदुत्व की तरफ लौट आई। पांच साल से कम समय में पार्टी ने 1989 में पालमपुर प्रस्ताव पारित किया। राम मंदिर निर्माण को लेकर पार्टी ने अपनी प्रतिबद्धता जताई। कैडर आधारित पार्टी बनाने पर पहले से फोकस था। लेकिन, नेताओं ने समझ लिया कि लक्ष्य को हासिल करने के लिए यह नाकाफी है। फिर, जनाधार बढ़ाने के लिए समाज के हर वर्ग के लोगों को पार्टी से जोड़ने की कोशिश शुरू हुई। वर्किंग ग्रुप की रिपोर्ट में बताया गया कि महत्वाकांक्षी नेताओं के लिए राजनीति में करियर बनाने और समाजिक आधार बढ़ाने के मौके होने चाहिए। इसके बाद दूसरे दर्जे के पार्टी के कई नेताओं को शीर्ष स्तर तक पहुंचने का मौका मिला। BJP को ताकतवर बनाने में इसकी बड़ी भूमिका रही।
पार्टी से ऐसे लोगों को जोड़ने पर जोर दिया गया, जो अपना पूरा समय दे सकते थे। कार्यकर्ता यह समझने लगे कि राजनीति के नियम बदल गए हैं और उन्हें अपना ज्यादा से ज्यादा समय पार्टी को देना होगा। अमित शाह ने बतौर पार्टी अध्यक्ष इस पर काफी जोर दिया। यही वजह है कि तब पार्टी का सबसे ज्यादा विस्तार हुआ। 2014 में बीजेपी ने फिर से प्रवास की परंपरा शुरू की। इसके नेताओं का देशभर के राज्यों का दौरा शुरू हुआ। सभी राष्ट्रीय पदाधिकारियों को एक साल में 9 राज्यों का दौरा करने को कहा गया। यह काम रोटेशन से होना तय हुआ ताकि सभी राज्यों की बारी आए। उदाहरण के लिए अमित शाह ने नक्सलबाड़ी से खुद का प्रवास शुरू किया।
अगस्त 2014 से 2018 के बीच पार्टी अध्यक्ष के रूप में खुद उन्होंने पार्टी के 1,027 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। 7,90,000 किलोमीटर का दौरा किया। इसका मतलब है कि रोजाना उन्होंने 519 किलोमीटर का दौरा किया। 102 बार उन्होंने अलग-अलग राज्यों में रातें बिताई। यह इस बात का संकेत है कि बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने संगठन को मजबूत बनाने पर किस तरह फोकस बढ़ाया। खासकर विपक्षी दल कांग्रेस के मुकाबले उसने किस तरह संगठन पर ज्यादा ध्यान दिया।
इसके नतीजे देखने को मिले। ‘पार्टी कार्यालय’ पार्टी से जुड़ी गतिवधियों का केंद्र बन गया। जिन जिलों में पार्टी कार्यालय नहीं थे, वहां एक साल के अंदर इसे शुरू करने की कोशिश की गई। इंडिया में इससे पहले राजनीति में कामयाबी के लिए पार्टी स्ट्रक्चर पर इतना फोकस नहीं किया गया था। देश में तेजी से बढ़ते शहरीकरण और आबादी में युवाओं की बढ़ती हिस्सेदारी के बीच इसके महत्व को कम कर नहीं आंका जा सकता। पिछले कुछ सालों में चुनावों में बीजेपी की बड़ी सफलता का श्रेय इस जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को जाता है। अमित शाह ने इसे इस तरह से कहा है, “वह युग खत्म हो चुका है जब दिल्ली में कमरे में बैठ सिर्फ दो नेता एक दूसरे से हाथ मिलाएंगे और मतदाता बंधुआ मजदूर की तरह उनके पीछे चलता रहेगा। एक मतदाता अपने वोट के बारे में खुद फैसला लेता है और इसका इस्तेमाल इस आधार पर करता है कि उसके लिए, उसके इलाके और उसके देश के लिए क्या बेहतर होगा।”
इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी और शाह अपने साथ नई ऊर्जा लेकर आए हैं और 2014 से उन्होंने अलग तरह का नेतृत्व दिया है। वाजपेयी और आडवाणी के सालों में पार्टी जिस तरह से चलाई जाती थी, उससे आज स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है।
(यह नलिन मेहता की किताब ‘द न्यू बीजेपी:मोदी एंड द मेकिंग ऑफ वर्ल्ड लार्जेस्ट पॉलिटिकल पार्टी’ का संपादित अंश हैं)
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