Political – दिल्ली में जय भीम और जय मीम की सियासत, जानें किसका खेल बनाएगी और किसका बिगाड़ेगी गेम- #INA
दिल्ली विधानसभा चुनाव
दिल्ली विधानसभा चुनाव का ऐलान नहीं हुआ है, लेकिन राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी सियासी बिसात बिछाने में जुटे हैं. बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दिल्ली सत्ता पर काबिज होने की जंग लड़ रही हैं. वहीं, जय भीम और जय मीम की सियासत करने वाली पार्टियां दिल्ली में किंगमेकर बनने की ख्वाहिश लेकर किस्मत आजमाने को उतर रही है. जय भीम की बात करने वाली बसपा है तो जय मीम की आवाज बुलंद करने वाले असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM है. ऐसे में सभी की निगाहें इस बात पर लगी हैं कि मायावती और ओवैसी दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपने खेल बनाते हैं या फिर सत्ता की ख्वाहिश वाले दलों का गेम बिगाड़ने का काम करेंगी?
दिल्ली विधानसभा का अभी तक का यह पहला ऐसा चुनाव होने जा रहा है, जिसमें मुस्लिम समाज के मतदाता राजनीतिक दलों के मुद्दे और उनके प्रत्याशियों की तरफ देख रहा है. मुस्लिमों के सियासी नब्ज को समझते हुए असदुद्दीन ओवैसी ने दिल्ली में पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ने की रणनीति अपनाई है. ऐसे ही दलित वोटों के समीकरण को देखते हुए बसपा प्रमुख मायावती ने भी पूरे दमखम के साथ दिल्ली चुनाव में किस्मत आजमाने का फैसला किया है. देखना होगा कि दिल्ली में ‘जय भीम और जय मीम’ की बात करने वाले बसपा और AIMIM क्या सियासी गुल खिलाती हैं?
दिल्ली में जय भीम और जय मीम की सियासत
जय भीम का का नारा संविधान निर्माता और दलित समाज के मसीहा माने जाने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर के लिए लगाया जाता है. बसपा की राजनीति डा. आंबेडकर के विचारधारा पर आधारित है और पार्टी का जनाधार दलित समाज के बीच है. इसीलिए जय भीम की सियासत को बसपा से जोड़कर देखा जाता है. दिल्ली में 17 फीसदी करीब दलित समाज की आबादी है, जिनके लिए 12 विधानसभा सीटें रिजर्व हैं. हालांकि, दलित समाज का सियासी प्रभाव इन्हीं 12 सीटों तक नहीं है बल्कि 15 से ज्यादा सीटों पर हार-जीत की भूमिका तय करते हैं. बसपा इन्हीं दलित वोटों के सहारे दिल्ली की चुनावी मैदान में उतरती रही है. 2008 के चुनाव में बसपा 14.05 फीसदी वोट शेयर के साथ दो सीटें जीतने में कामयाब रही है.
वहीं, जय मीम का सीधा सा मतलब मुस्लिम समुदाय से है. मुस्लिमों के नाम पर असदुद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी AIMIM सियासत करती है. ओवैसी का पूरा राजनीतिक आधार मुस्लिम वोटों पर टिका है. दिल्ली में 12 फीसदी के करीब मुस्लिम वोटर हैं, जो दस विधानसभा सीटों पर जीतने या फिर किसी को जिताने की ताकत रखते हैं. मटिया महल, ओखला, मुस्तफाबाद, बल्लिमरान और सीलमपुर सीट पर मुस्लिम विधायक जाते रहे हैं जबकि चांदनी चौक, बाबरपुर, त्रिलोकपुरी, सीमापुरी और किराड़ी सीट पर मुस्लिम वोटर जीतने की ताकत रखते हैं. इन विधानसभा सीटों पर 35 से 60 फीसदी तक मुस्लिम मतदाता हैं. मुस्लिम वोटों के सियासी ताकत के चलते ओवैसी ने दिल्ली के चुनाव में किस्मत आजमाने का दांव चला है.
दिल्ली में मुस्लिम वोटिंग पैटर्न
दिल्ली की राजनीति में मुस्लिम वोटर बहुत ही सुनियोजित तरीके से वोटिंग करते रहे हैं. एक दौर में मुस्लिमों को कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता था. मुस्लिम समुदाय ने दिल्ली में 2013 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए वोट किया था. 2015-2020 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समुदाय की दिल्ली में पहली पसंद आम आदमी पार्टी बनी थी. मुस्लिम वोटिंग पैटर्न के चलते ही कांग्रेस 2013 में दिल्ली में आठ सीटें जीती थीं, जिसमें चार मुस्लिम विधायक शामिल थे. 2013 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में कांग्रेस को पांच और AAP को एक सीट मिली थी. इसके बाद कांग्रेस का वोट आम आदमी के साथ चला गया, जिसका नतीजा रहा कि सभी मुस्लिम सीटें केजरीवाल जीतने में कामयाब रहे.
दिल्ली में दलित वोटिंग पैटर्न
दिल्ली में दलित समाज एक समय कांग्रेस का कोर वोटबैंक हुआ करता था, जिसके चलते कांग्रेस ने 1998 से लेकर 2013 तक दिल्ली पर राज किया. हालांकि, दलित समाज का कुछ वोट बसपा को भी मिलता रहा, लेकिन 2013 के बाद से दलित वोटर कांग्रेस से आम आदमी पार्टी में शिफ्ट हो गया. इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस और बसपा दोनों ही दिल्ली की सियासत में हाशिए पर चली गई.
अरविंद केजरीवाल दिल्ली के दलित वोटों पर अपना एकछत्र राज कायम हुए हैं, जिसके बदौलत 2013 से लेकर 2020 तक दलितों का 70 फीसदी से ज्यादा वोट आम आदमी पार्टी को मिला है. 2025 में बसपा प्रमुख मायावती अपने खिसके हुए जनाधार को पाने के लिए पूरे दमखम के साथ दिल्ली चुनाव में उतरने का प्लान बनाया है तो आम आदमी पार्टी अपना दबदबा मजबूत बनाए रखने की कवायद में है. इसके अलावा बीजेपी और कांग्रेस की नजर दलित वोटों पर टिकी हुई है.
मुस्लिमों के सहारे ओवैसी का दांव
देश में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाने वाले असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में पूरे दमखम के साथ उतरने का प्लान बनाया है. ऐसे में दिल्ली दंगे के जख्मों को हरा कर मुस्लिमों का दिल ओवैसी जीतना चाहती है. इसीलिए मुस्तफाबाद सीट से दिल्ली दंगे के आरोपी ताहिर हुसैन को प्रत्याशी बनाया है और दूसरी सीटों पर दिल्ली दंगे के आरोपियों को उतारने की प्लानिंग कर रखी है. औवैसी ने ओखला, बल्लीमरान, चांदनी चौक, मटिया महल जैसी मुस्लिम बहुल सीट पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारने की तैयारी है. इस तरह से ओवैसी सभी मुस्लिम बहुल सीटों पर मुस्लिम कैंडिडेट उतारने की रणनीति बनाई है, जो दिल्ली में धार्मिक ध्रुवीकरण का अहम कारण बन सकती है.
दंगों के आरोपी ताहिर हुसैन को प्रत्याशी बनाकर ओवैसी ने प्रचार भी शुरू कर दिया है. ओवैसी ने दिल्ली में सक्रियता बढ़ा दी और मुस्तफाबाद में अपने प्रत्याशी के समर्थन में जनसभा कर आप विधायक नरेश यादव द्वारा कुरान शरीफ की बेअदबी वाले मुद्दे को उठाया था. ओवैसी ने अपने कार्यकर्ताओं से इस मुददे को हर मुस्लिम घर तक पहुंचाने के लिए कहा है. ओवैसी के दिल्ली की सियासत में दस्तक देने से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की सियासी टेंशन बढ़ गई है. मुस्लिम वोटों का बिखराव होता है तो सीधा सा नुकसान कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को उठाना पड़ेगा.
दिल्ली में किसे नफा और किसे नुकसान
कांग्रेस भी केजरीवाल पर मुस्लिम विरोध कठघरे में खड़े करने की कवायद में है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने पांच मुस्लिम बहुल सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं तो कांग्रेस ने भी छह मुस्लिम प्रत्याशी उतार चुकी है. इसके अलावा ओखला जैसी मुस्लिम बहुल सीट पर अभी उसे प्रत्याशी उतारना बाकी है. इस तरह दिल्ली में मुस्लिम बहुल सीटों पर
मुस्लिम बनाम मुस्लिम की फाइट कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और ओवैसी की बीच देखने को मिल सकती है. दिल्ली के जख्मों को कुरेद कर ओवैसी भले ही दिल्ली में सीट न जीत सके, लेकिन कांग्रेस और केजरीवाल का खेल जरूर बिगाड़ सकते हैं. मुस्लिम वोटों के बिखराव होता है तो सीधे फायदा बीजेपी को मिल सकता है. इसके अलावा ओवैसी के आक्रमक मुस्लिम राजनीति के चलते मुस्लिम वोटों का धुर्वीकरण होता तो उसके काउंटर में बहुसंख्यक वर्ग का भी धुर्वीकरण बीजेपी के पक्ष में हो सकता है.
वहीं, मुस्लिम वोटों की तरह दलित वोटों पर भी इस बार सभी दलों की निगाहें लगी हुई हैं. डा. भीमराव आंबेडकर पर टिप्पणी किए जाने के बाद दिल्ली में सबसे ज्यादा तेवर राजनीतिक दलों ने दिखाए हैं. केजरीवाल ने वाल्मिकी मंदिर में जाकर माथा टेकने से लेकर बीजेपी के सहयोगी दलों को चिट्टी लिखकर अमित शाह के बयान पर विचार करने के लिए गुजारिश की थी. कांग्रेस भी दिल्ली की सड़कों पर उतरी थी तो दलित राजनीति पर अपना एकाधिकार समझने वाली बसपा ने दिल्ली की सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन किया था. इसकी अगुवाई बसपा के नेशनल कॉर्डिनेटर आकाश आनंद ने की थी. अब बसपा प्रमुख मायावती ने खुद दिल्ली में डेरा जमाकर पूरे दमखम के साथ में चुनाव लड़ने का फैसला किया है.
आकाश आनंद पांच जनवरी को दिल्ली के दलित बहुल कोंडली स्थित अंबेडकर पार्क में जनसभा कर दिल्ली चुनाव अभियान का आगाज करेंगे. बसपा के जनाधार बढ़ाने के लिए डोर-टू-डोर जनसंपर्क अभियान भी चलाने की रणनीति है. इसके अलावा दलित और पिछड़ों पर फोकस करने और मजबूत प्रत्याशी उतारने की स्ट्रैटेजी बनाई है. ऐसे में बसपा के सियासी दस्तक और मजबूती से चुनाव लड़ने से आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का सियासी खेल गड़बड़ा सकता है. बीजेपी अगर अपने पिछले वोटबैंक को साधे रखती है और दलित वोटों में बिखराव होता है तो दिल्ली में उसके 27 साल का सियासी वनवास खत्म हो सकता है. ऐसे में देखना है कि दलित और मुस्लिम वोटों का समीकरण दिल्ली में किया चुनावी गुल खिलाता है.
दिल्ली में जय भीम और जय मीम की सियासत, जानें किसका खेल बनाएगी और किसका बिगाड़ेगी गेम
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