खबर फिली – Kanguva Review : सूर्या की शानदार एक्टिंग को कमजोर कहानी का ग्रहण, कैसी है बॉबी देओल की ‘कंगूवा’ – #iNA @INA
कंगूवा भले ही सूर्या की पहली पैन इंडिया फिल्म हो, लेकिन उनकी हिंदी डब फिल्में सालों से हमारा मनोरंजन कर रही हैं. रोहित शेट्टी की जो ‘सिंघम अगेन’ आज बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा रही है, उस सिंघम का कॉन्सेप्ट भी सूर्या की फिल्म ‘सिंघम’ से प्रेरित हैं. एंटरटेनमेंट के साथ इमोशन और यूनिक कॉन्सेप्ट, सूर्या की फिल्म की यूएसपी रही है और यही वजह है कि बहुत पहले ही मैंने तय कर लिया था कि सूर्या की कंगूवा फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखनी है. आसान भाषा में कहा जाए तो कंगूवा एक ‘पैसा वसूल’ फिल्म है, मैं ये नहीं कहूंगी कि ये एक परफेक्ट फिल्म है. लेकिन एक बेहतरीन सिनेमेटिक एक्सपीरियंस के लिए आप इसे जरूर देख सकते हैं.
कहानी
साल है 2024, गोवा में रहने वाले फ्रांसिस (सूर्या), अपनी एक्स गर्लफ्रेंड एंजेला (दिशा पाटनी) और दोस्त (योगी बाबू) के साथ बाउंटी हंटिंग का काम कर रहे हैं. एक असाइनमेंट के दौरान अचानक फ्रांसिस और उसका दोस्त एक बच्चे (जेटा) से टकराते हैं और अपनी ही दुनिया में दंग इस लड़के को देखकर फ्रांसिस को एक कनेक्शन महसूस होता है. अब जेटा और फ्रांसिस में क्या रिश्ता है? ये जानने के लिए आपको थिएटर में जाकर कंगूवा देखनी होगी.
जानें कैसी है ये फिल्म?
कंगूवा हमें साल 2024 और साल 1070 की दो अलग-अलग दुनिया में लेकर जाती हैं. विजुअल एक्सपीरियंस की बात करें तो ‘कंगूवा’ के जरिए निर्देशक सिवा और सूर्या दोनों के द्वारा बड़े पर्दे पर पेश की गई ये दुनिया बड़ी ही अद्भुत है. फिल्म के फर्स्ट हाफ में इंटरवल से पहले का आधा घंटा थोड़ा बोरिंग लगता है, लेकिन सेकंड हाफ में आपकी स्क्रीन से नज़र ही नहीं हटती. कंगूवा जैसी फिल्म में फ्लैशबैक और प्रेजेंट का सही तालमेल होना बहुत जरूरी होता है. बाहुबली में एस एस राजामौली ने ये कमाल करके दिखाया था. लेकिन बाहुबली के बाद न ही सलार में ये तालमेल नजर आया था न ही कल्कि में. लेकिन निर्देशक सिवा ने अपनी फिल्म में ये तालमेल सही से बिठाया है और इसलिए ये फिल्म हम थिएटर में एन्जॉय कर सकते हैं.
हाल ही में रिलीज हुई इंडियन 2, सलार और कल्कि जैसी पैन इंडिया फिल्में देखकर ये लग रहा था कि पार्ट 2 दिखाने के लिए फिल्म के पार्ट 1 में मेकर्स सिर्फ क्लाइमेक्स पर मेहनत करते हैं और बाकी फिल्म बिना वजह खींची जाती है. लेकिन कंगूवा में ये बात नहीं है. कंगूवा में शुरुआत से लेकर अंत तक एक कहानी है, भले ही वो प्रेडिक्टेबल है, लेकिन ये फिल्म देखते हुए हमें कहीं पर भी ये नहीं लगता कि सीन को बिना वजह खींचा जा रहा है.
निर्देशन
कंगूवा हमें ये विश्वास दिलाती है कि सिवा अपना होमवर्क करके आए हैं. एक पैन इंडिया फिल्म बनाने के लिए क्या चाहिए, ये वो बखूबी जानते हैं. उन्होंने सिनेमेटोग्राफी की पढाई गोल्ड मेडल के साथ पूरी की थी और उनका ये टैलेंट फिल्म में नजर आता है. वैसे देखा जाए तो एक इंसान का 5000 लोगों को अकेले मारना नामुमकिन है, लेकिन जब सिवा हमें यकीन दिलाते हैं कि कंगूवा चाहे तो कुछ भी कर सकता है तब हम वो मान भी लेते हैं और शायद यही उनकी जीत हैं.
भले ही कंगूवा की स्टोरी टेलिंग यानी कहानी बयां करने का अंदाज शानदार हो, लेकिन ‘कंगूवा’ की कहानी इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है. शुरुआत से लेकर अंत तक ये एक प्रेडिक्टेबल कहानी है. इसमें बाकी पैन इंडिया फिल्मों की तरह क्लाइमेक्स में कोई शॉकिंग ट्विस्ट नहीं है. जैसे कल्कि 2898 एडी में भैरव (प्रभास) का कर्ण अवतार फिल्म का हाई पॉइंट था, वैसे इस कहानी के हिसाब से फिल्म में कोई हाई पॉइंट नहीं हैं. हमें यहां पता होता है कि अब एक विलेन मर गया है तो दूसरे विलेन की एंट्री होगी. हम ये भी जानते हैं कि अब दूसरे पार्ट में कंगूवा का सामना नए विलेन के साथ होगा. फिल्म में शॉक, सरप्राइज, इमोशंस सब कुछ है, लेकिन उसका श्रेय कहानी को नहीं बल्कि एक्टर्स की एक्टिंग और सिवा के स्टोरी टेलिंग के टैलेंट को जाता है.
एक्टिंग
2 घंटे 32 मिनट की इस फिल्म में सूर्या से नजर नहीं हटती. जय भीम में एडवोकेट चंद्रू का किरदार निभाने वाले सूर्या ने कंगूवा के लिए 360 डिग्री टर्न लिया है. इस फिल्म में एक तरफ वो अपने एक्सप्रेशन से कंगूवा का राउडी रूप और अग्रेशन भी दिखाते हैं और दूसरे ही पल वो फ्रांसिस के रूप में एक पूरी तरह अलग व्यक्तित्व से हमें मिलवाते हैं. सूर्या एक ऐसे एक्टर हैं, जो अपनी हर फिल्म में कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं और उसमें वो सफल भी हो जाते हैं.
बॉबी देओल ने भी इस फिल्म में अपनी भूमिका को न्याय दिया है. लेकिन ये सूर्या की फिल्म है और पूरी फिल्म में उनसे नजर ही नहीं हटती कि ऑडियंस बॉबी देओल की तरफ भी देखे. बॉबी देओल और सूर्या के सीन अगर और होते तो मजा आ जाता, उन दोनों को एक साथ देखना किसी विजुअल ट्रीट से कम नहीं है. मेन विलेन होने के बावजूद फिल्म में बॉबी की स्क्रीन टाइमिंग कम है. लेकिन एनिमल से तुलना की जाए तो रणबीर कपूर की फिल्म के मुकाबले यहां उन्हें ज्यादा स्क्रीनटाइम मिल रहा है. दिशा पाटनी हमेशा की तरफ स्वादानुसार ग्लैमर फिल्म में ऐड करती हैं. बाकी उनका कुछ खास काम नहीं है.
सिनेमेटोग्राफी और म्यूजिक
फिल्म के कुछ गाने अच्छे हैं. लेकिन अपनी पैन इंडिया फिल्मों पर करोड़ो का खर्चा करने वाले साउथ मेकर्स को कुछ अच्छे हिंदी गाने फिल्म में शामिल करने चाहिए. जरूरी नहीं कि धुन को मैच करने के लिए वो कुछ भी करें. क्योंकि कभी कभी गाने की धुन को मैच करने के चक्कर में उनके हिंदी वर्जन में ऐसे-ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है कि उनको सुनते कानों से खून आ जाए. एक दो गानों को छोड़कर कंगूवा में भी यही हाल है. भले ही कंगूवा के गाने खास नहीं हों, लेकिन फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक कमाल का है. फाइटिंग सीन से लेकर सूर्या की एंट्री तक फिल्म के कई सीन म्यूजिक की वजह से और प्रभावी लगते हैं.
फिल्म के प्रमोशन के समय बताया गया था कि ज्यादातर फिल्म नेचुरल लाइट में शूट की गई है. इससे कुछ खास बदलाव तो नहीं नजर आता. लेकिन सीन के लिए की गई फ्रेमिंग बड़ी रिफ्रेशिंग हैं. हरे-भरे जंगल के सीन हो या रात के समय फिल्माए गए सीन हो इन्हें बड़ी ही खूबसूरती से कैप्चर किया गया है.
दो मगरमच्छ के साथ सूर्या की फाइट का सीन बहुत ही कमाल का है. सूर्या की एंट्री और उनका इंट्रोडक्शन, बॉबी देओल की फाइट जैसे कई सीन आपको आपकी कुर्सी से हटने नहीं देते. फिल्म में जो वीएफक्स और सीजीआई का इस्तेमाल किया गया है, वो हॉलीवुड को टक्कर दे सकता है.
देखें या न देखें
सूर्या की इस फिल्म में मुझे ये बात सबसे अच्छी लगी कि बाकी साउथ फिल्मों के मुकाबले इस फिल्म में महिलाओं को कमजोर नहीं दिखाया गया है. कंगूवा में हम देखते हैं कि सफेद पर्वत की तरफ जड़ी-बूटी ढूंढने गई महिलाओं पर जब उधिरन का बेटा हमला करता है तब वो उसके टुकड़े-टुकड़े कर देती हैं. उम्मीद है कि साउथ की फिल्मों में इस तरह का कंटेंट भी नजर आए, जहां सिर्फ वीडियो गेम की तरह एक्शन और वॉयलेंस न हो.
कंगूवा में भी वॉयलेंस है, लेकिन वो वीभत्स नहीं लगता, इसमें एक इमोशनल कहानी भी है. लेकिन स्टोरी टेलिंग में उलझे सिवा ने इस कहानी पर ज्यादा मेहनत नहीं की है. कहानी के अलावा फिल्म के लिए लिखे गए डायलॉग्स पर भी काम किया जा सकता था. उदहारण के तौर पर बात की जाए तो तुम्हारे रक्त से निकला हुआ की जगह तुम्हारे खून से निकला हुआ हो सकता था. कई जगह कंगूवा और उधिरन के डायलॉग वर्ड टू वर्ड ट्रांसलेशन लगते हैं. ये भी टाला जा सकता था. बाकी 100 बात की एक बात सूर्या और सिवा एक अच्छी फिल्म लेकर आए हैं, इसे थिएटर में देखना एक शानदार विजुअल अनुभव होगा.
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