Entertainment: मेनस्ट्रीम फिल्मों में दलित-OBC नायक क्यों नहीं होते? अब ‘फुले’ फिल्म ने तोड़ी परंपरा – #iNA

अनंत महादेवन के निर्देशन में बनी फिल्म फुले 19वीं शताब्दी के समाज सुधारक ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के सामाजिक संघर्ष की दास्तां पेश करती है. फिल्म में प्रतीक गांधी और पत्रलेखा ने मुख्य रोल निभाए हैं. मराठी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले फुले दंपत्ति पिछड़ी जाति से आते थे और उन्होंने समाज के वंचित वर्ग को मुख्यधारा में लाने के लिए अनेक बड़े काम किए थे. दलितों के उत्थान के लिए उन्होंने शिक्षा को सबसे अहम हथियार बनाया था. इस प्रकार फुले एक ऐसी फिल्म है जिसका नायक सवर्ण जाति से ताल्लुक नहीं रखता. देखा जाय तो मुख्यधारा की फिल्मों में आमतौर पर ऐसे नायक नहीं होते जो दलित या फिर ओबीसी समाज से आते हों. इसकी संख्या बहुत नगण्य है. इस लेख में हम उन फिल्मों की भी चर्चा करेंगे.
आमतौर पर मेनस्ट्रीम की कोई भी देख लिजिए, उनमें आपको नायकों के नाम के आगे- राठौड़, चौहान, पांडे, शर्मा, सिंह, चतुर्वेदी, वर्मा, सिंघानिया, कपूर, खन्ना, श्रीवास्तव, मलहोत्रा, वाजपेयी, ठाकुर, लाला, राय साहेब या रायचंद आदि टाइटल मिलेंगे. इस लिहाज से फुले अलग मिजाज की फिल्म हो जाती है. हालांकि निर्माण, निर्देशन और अभिनय की कसौटी पर यह फिल्म कितनी खरी उतरी है, ये जानने के लिए थिएटर की ओर रुख करने की जरूरत है. जहां इस फिल्म को कितने दर्शक मिलते हैं, ये पहलू भी देखना दिलचस्प होगा, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि फुले ने मुख्यधारा की फिल्मों के जातीय बोध को टक्कर जरूर दे दी है.
फुले ने फिल्म इंडस्ट्री को ब्रेक थ्रू दिया
गौर करने वाली बात तो ये है कि देश की चुनावी राजनीति हो या सत्ता की राजनीति- इस मोर्चे पर दलित और ओबीसी एक गंभीर मुद्दा है. यहां तक कि रीयल लाइफ में भी फिल्म इंडस्ट्री में तमाम कलाकार, निर्माता-निर्देशक, स्क्रीन राइटर या कि टेक्नीशियंस सभी जाति और धर्म से हैं लेकिन जब स्क्रीन पर कहानी फिल्माई जाती है तो उसके मुख्य हीरो दलित या ओबीसी वर्ग के कम ही होते हैं, साइड के कुछ किरदारों को छोड़कर. आखिर ऐसा क्यों होता है. पर्दे पर दिखाई गई कहानियों के नायक हमेशा सवर्ण क्यों होते हैं? फुले ने इस आधार पर फिल्म इंडस्ट्री को एक बार फिर से एक नया ब्रेक थ्रू दिया है.
हालांकि हमारी फिल्म इंडस्ट्री में इससे पहले भी कई ऐसी फिल्में बनीं हैं जिसके नायक दलित या ओबीसी तबके से आते रहे हैं, लेकिन ये गिनती के हैं. सबसे हाल में सनी देओल की फिल्म जाट आती जरूर है लेकिन यह जातीय बोध कराने वाली फिल्म नहीं है बल्कि ये जाट रेजिमेंट के एक जांबाज ब्रिगेडियर की कहानी कहती है. इससे पहले कोविड काल की दुश्वारियों की कहानी कहने वाली अनुभव सिन्हा की फिल्म भीड़ का नायक भी समाज के हाशिये पर रहने वाला था, जिसे सवर्ण तबके की युवती से प्रेम होता है. जैसे कि नीरज घायवन की फिल्म मसान में.
केवल बायोपिक में दिखे दलित, आदिवासी
वैसे फुले की तरह बायोपिक श्रेणी में साल 2015 की मांझी द माउंटेन मैन और साल 2022 में झुंड ऐसी फिल्में आई थीं जहां हाशिये की दुनिया के क्रांतिवीरों के योगदान को प्रमुखता से दिखाया गया था. केतन मेहता के निर्देशन में बनी मांझी फिल्म दशरथ माझी के जीवन पर आधारित थी, जिन्होंने पत्नी प्रेम में पहाड़ काट कर रास्ता बनाया था तो वहीं झुंड नागपुर में मलिन बस्ती के बच्चों को लेकर स्लम सॉकर नामक संस्था बनाकर फुटबॉल टीम बनाने वाले विजय बरसे की कहानी थी. दशरथ माझी नवाजुद्दीन सिद्दीकी बने थे जबकि झुंड में बिजय बरसे अमिताभ बच्चन बने थे. झुंड का डायरेक्शन नागराज मंजुले ने किया था. इस लिहाज से जग मुंदड़ा की बवंडर और शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन को भी नहीं भूला जा सकता.
दिलीप कुमार और राजेश खन्ना
सगीना महतो और आज का MLA अपवाद
लेकिन बात हम मुख्यधारा की उन फिल्मों की कर रहे हैं जो आमतौर पर बॉक्स ऑफिस पर बड़े पैमाने पर कमर्शियल सक्सेस के लिए जानी जाती हैं. उस लिहाज से देखें तो साल 1970 में तपन सिन्हा के निर्देशन में आई दिलीप कुमार अभिनीत सगीना महतो, 1973 में आई नूतन-अमिताभ बच्चन की सौदागर और साल 1984 में आई राजेश खन्ना अभिनीत आज का एमएलए राम अवतार की याद आती है. इस दृष्टिकोण से ये दोनों फिल्में अपवाद हैं. आज का एमएलए फिल्म में राजेश खन्ना ने जिस राम अवतार का किरदार निभाया है, वह नाई जाति से ताल्लुक रखता है.इसी तरह 2009 में प्रियदर्शन के निर्देशन में आई फिल्म बिल्लू में एक बार फिर से इरफान खान के किरदार को नाई के रूप में पेश किया जाता है. इस फिल्म में शाहरुख खान ने भी प्रमुख भूमिका निभाई थी.
कलेक्शन का जोखिम उठाना आसान नहीं
अब जानते हैं आखिर इसकी वजह क्या है? किसी जमाने में फिल्मों में दलित-ओबीसी नायक नहीं होने की वजह दर्शक वर्ग की जातीय बहुलता से जोड़ा जाता था. धारणा यह थी कि पैसे खर्च करके टिकट खरीदने वाले ज्यादातर दर्शक धनी और सवर्ण वर्ग के होते हैं इसलिए सामाजिक तौर पर निम्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले नायकों वाली फिल्में बिजनेस नहीं करेंगी लेकिन दशकों बाद अब हालात काफी बदल गए हैं.
दिलीप कुमार और राजेश खन्ना जैसे कलाकारों के बाद आज के जमाने में समाज का अधिकतम तबका शिक्षित और कामकाजी भी है और पहले के मुकाबले पैसे खर्च करके टिकट खरीदकर फिल्में देखने में सक्षम है. इसके बावजूद कहानी के नायक का सरनेम बदलना एक बड़े जोखिम भरा काम माना जा रहा है. बॉक्स ऑफिस कनेक्शन की आशंका के चलते सुपरस्टार भी अपने रुतबा से समझौता नहीं कर पाते.
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