Political – उंगली की जगह नाखून पर क्यों लगाई जाती है चुनावी स्याही? जानें क्यों बदली परंपरा, किन देशों में इसकी मांग- #INA

भारतीय चुनावी स्याही का फॉर्मूला आज भी सीक्रेट है.

दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए आज (05 फरवरी 2025) को मतदान हो रहा है. मतदान केंद्रों पर ईवीएम का बटन दबाने से पहले सभी के मतदाताओं के नाखून में नीली स्याही लगाई जा रही है. वोट डाल कर निकलने के बाद मतदाता इस नीली स्याही वाले नाखून के साथ सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर एक-दूसरे के साथ शेयर कर रहे हैं. पर क्या आप जानते हैं कि मतदान का सबूत देने वाली इस अमिट स्याही का किस्सा क्या है?

अंग्रेजों से देश को आजादी मिलने के बाद साल 1951-52 में पहली बार आम चुनाव कराए गए थे. तब कई लोगों ने किसी दूसरे के स्थान पर वोट डाल दिया. कई लोगों ने एक से अधिक बार मतदान किया. निर्वाचन आयोग के पास इसकी शिकायतें आईं, तो हल खोजा जाने लगा. कई विकल्पों पर विचार के बाद आयोग ने सोचा कि क्यों न मतदाताओं की अंगुली पर एक निशान बनाया जाए. इससे यह पता लगाया जा सकेगा कि कौन वोट डाल चुका है.

अब मुश्किल यह आ रही थी कि निशान बनाने के लिए जिस स्याही का इस्तेमाल हो, वह मिटनी नहीं चाहिए. आयोग ने इसका हल निकालने के लिए नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी ऑफ इंडिया (एनपीएल) से संपर्क किया. एनपीएल ने ही ऐसी स्याही तैयार की, जिसे पानी और केमिकल से मिटाया नहीं जा सकता था. एनपीएल ने इस स्याही को बनाने का ऑर्डर मैसूर पेंट एंड वार्निश कंपनी को दिया.

उंगुली के बजाय नाखून पर लगाया जाने लगा

साल 1971 से पहले तक यह स्याही उंगुली पर ही लगाई जाती रही. इसी बीच एक रिपोर्ट आई कि वाराणसी की एक युवती ने केवल इसलिए मतदान से मना कर दिया था, क्योंकि शादी वाले दिन उंगुली पर लगा निशान अच्छा नहीं लगेगा. यह भी आशंका थी कि त्वचा पर बनाया गया निशान बार-बार रगड़ने से मिटाया जा सकता है. इसके बाद 1971 में चुनाव आयोग ने यह निर्णय लिया कि स्याही नाखून पर लगाई जाएगी, जिससे जैसे-जैसे नाखून बढ़ेंगे, इसका निशान खत्म होता जाएगा.

मैसूर राजवंश से जुड़ा है कंपनी का इतिहास

इस स्याही को बनाने वाली देश की एकमात्र कंपनी मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड का दशकों पुराना इतिहास मैसूर राजवंश से जुड़ा है. लोकतंत्र की अमिट निशानी बनाने वाले कभी खुद शासक थे पर आज उनकी विरासत के निशान लोकतंत्र में हर मतदाता की अंगुली पर दिखते हैं. दरअसल, देश की स्वाधीनता से पहले कर्नाटक के मैसूर में वाडियार राजवंश का शासन था.

दुनिया के सबसे अमीर राजघरानों में रहे वाडियार राजवंश के कृष्णराज ने साल 1937 में पेंट और वार्निश की फैक्टरी खोली थी. इसका नाम रखा था मैसूर लाख एंड पेंट्स. आजादी के कुछ समय बाद ही फैक्टरी को कर्नाटक सरकार ने अधिग्रहित कर लिया, जिसमें चुनाव में इस्तेमाल होने वाली स्याही का उत्पादन किया जाने लगा. साल 1989 में इस फैक्टरी नाम बदलकर मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड (एमपीवीएल) कर दिया गया. एमपीवीएल केवल चुनाव आयोग या चुनाव में काम कर रही एजेंसियों को ही इस स्याही की आपूर्ति करती है.

इसलिए नहीं मिटती है स्याही

इस स्याही का फॉर्मूला विज्ञान की प्रयोगशाला से निकला है. इसके पीछे काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के वैज्ञानिकों ने मेहनत की थी. साल 1952 में नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी में इसका आविष्कार किया गया था. इसको बनाने में सिल्वर नाइट्रेट का उपयोग किया जाता है. मतदाता के नाखून पर लगने के साथ ही सिल्वर नाइट्रेट शरीर में मौजूद सोडियम से मिलकर सोडियम क्लोराइड बनाना शुरू कर देता है. इससे नीली स्याही काली हो जाती है. सिल्वर नाइट्रेट वास्तव में पानी के संपर्क में आने पर और गहरा होता जाता है. साबुन का इस पर कोई असर नहीं पड़ता.

इस चुनावी स्याही का सटीक फॉर्मूला आज भी गुप्त है. नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी ऑफ इंडिया और ना ही मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड ने कभी भी इसके फॉर्मूले को सार्वजनिक नहीं किया है. किसी और कंपनी को यह स्याही बनाने का अधिकार भी नहीं है.

इतने देशों में होता है इस्तेमाल

इस अमिट चुनावी स्याही का उपयोग आज 30 देशों की निर्वाचन प्रक्रिया में होता है. एमपीवीएल की इस स्याही का प्रयोग भारत के साथ दुनियाभर के कई सारे देशों में किया जाता है. ये देश एमपीवीएल से ही स्याही खरीदते हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार जो देश एमपीवीएल से यह स्याही खरीदते हैं, उनमें दक्षिण अफ्रीका, कनाडा, मालदीव, कंबोडिया, मलेशिया, अफगानिस्तान, तुर्की, नेपाल, घाना, पापुआ न्यू गिनी, नाइजीरिया, बुर्कीना फासो, बुरुंडी, टोगो और सिएरा लियोन आदि हैं. कंपनी की वेबसाइट के अनुसार साल 2019-20 में इस कंपनी का राजस्व 21.52 करोड़ रुपये था. तब इसने 4.70 करोड़ का मुनाफा कमाया था.

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