World News: भविष्य की चाह में वर्तमान गिरवी… कनाडा फूड बैंक्स में भारतीय छात्रों पर क्यों लगी रोक? – INA NEWS

सोशल मीडिया के जमाने में बहुत सारी बातें अर्ध सत्य के तौर पर दिखाई या सुनाई जाती हैं. पिछले कुछ दिनों से कनाडा से रोज खबरें आ रही हैं कि वहां भारतीय छात्रों के भूखों मरने की नौबत आ गई है क्योंकि जिन फूड बैंकों से उन्हें ग्रोसरी का सामान मुफ्त मिलता था, उन्होंने भारतीय छात्रों को मदद करना बंद कर दिया है. पर यह सिर्फ शिकायत है और इसमें एक पक्ष ही दिखाया गया है. इस पर चर्चा नहीं की जाती कि कनाडा की दातव्य संस्था (Charitable trust) ने फूड बैंक में भारतीय छात्रों पर रोक क्यों लगाई? जबकि संस्था का उद्देश्य गरीब और भुखमरी से पीड़ित लोगों की मदद करना था. जब ये फूड बैंक शुरू किए थे तब इनका मकसद भूख से पीड़ित जनता को बचाना था. इस तरह के फ़ूड बैंक बनाने के पीछे अफ्रीका और एशिया की अकाल से पीड़ित लोगों की भुखमरी दूर करना था.
गरीबों के राशन पर निठल्लों का कब्जा
मालूम हो कि कनाडा के सभी प्रांतों (10 राज्यों और तीन रिज़र्ब क्षेत्रों) में ऐसे बैंक चल रहे हैं, जो भूखों और निराश्रितों को मुफ्त भोजन सामग्री देते हैं. लेकिन पिछले एक वर्ष से ये फ़ूड बैंक संकट में आ गए थे क्योंकि वर्ष 2024 में लाख लोगों ने इन फ़ूड बैंकों से मुफ्त भोजन लिया जबकि पूरे कनाडा की आबादी 3.8 करोड़ है. इसका मतलब आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुफ्त भोजन की फिराक में रहता है. कनाडा के लोगों ने चर्च के आग्रह पर इन फूड बैंकों को 1987 में शुरू किया था. किंतु यहां से लोग अपनी हफ्तों की ग्रोसरी उठा कर ले जाते. इसका खुलासा हुआ मेहुल प्रजापति नाम के एक भारतीय छात्र के इंस्टाग्राम वीडियो से. उसने अपने वीडियो में बताया कि कैसे वह हफ्तों का राशन फूड बैंक से ले आता है. इंस्टाग्राम का यह वीडियो तेजी से वायरल हुआ. कनाडा में कोहराम मच गया और लोगों ने फूड बैंक को मदद करनी बंद कर दी.
ट्रूडो ने दुनिया भर के लोगों को ला कर बसाया
इसके बाद से फूड बैंकों ने अपने यहां भारतीय और अन्य अंतरराष्ट्रीय छात्रों के प्रवेश पर रोक लगा दी. नए नियम के अनुसार फूड बैंकों से सिर्फ उन्हीं लोगों को मुफ़्त राशन मिलेगा, जो PR (Permanent Residency) ले कर आते हैं अथवा वे कनाडा के नागरिक हैं. इसमें कोई शक नहीं कि 2015 से मार्च 2025 तक प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के राज में कनाडा की आर्थिक स्थिति बदहाल हुई है. उनकी आर्थिक और विदेशी नीतियां कमजोर रहीं. इसके अलावा उन्होंने दुनिया के दूसरे हिस्सों से ला कर लोगों को बसाया गया. उनका मानना था कि क्षेत्रफल की दृष्टि से दुनिया का दूसरे नंबर के देश में आबादी बढ़ाई जाए ताकि कनाडा को लेबर पावर मिले और निर्जन क्षेत्रों में चहल-पहल लाई जाए. मगर लोगों को बसाने के लिए उन्होंने दक्षिण एशिया और चीन के लोगों को तवज्जो दी. इनमें से अधिकांश लोग शरणार्थी बन कर गए.
शरणार्थियों ने अर्थ व्यवस्था बिगाड़ी
शरणार्थियों को बसाने में अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन किया जाता है. इसके तहत इन शरणार्थियों को नियमित पैसा दिया जाएगा. उसके परिवार की ज़िम्मेदारी भी सरकार उठाएगी. उनके स्वास्थ्य, बच्चों की देखभाल भी सरकार करेगी. अफगानिस्तान में बहुत सारे शरणार्थी पहुंचे, यूक्रेन से भी. इन लोगों ने वहां कोई कामकाज की तलाश करना दूर सरकार पर ही बोझ बन गए. यहां अगर PR मिल जाए तो प्रति व्यक्ति के हिसाब से उसे बेरोज़गारी भत्ता मिलेगा. उसके बच्चों को फ्री शिक्षा और उनकी परवरिश का भी भत्ता उतना ही मिलेगा जितना कि वहां के नागरिकों को. PR कार्ड धारकों को कम से कम दो वर्ष वहां रहना ही पड़ेगा तब ही उनका PR कार्ड अगले पांच वर्ष के लिए जारी होगा. यदि कोई PR कार्ड धारक तीन वर्ष लगातार कनाडा में रह लिया हो और वहां के किसी कानून का उल्लंघन न किया हो तो वह कनाडा की नागरिकता पाने का अधिकारी हो जाता है.
PR और सिटीजनशिप
कनाडा का नागरिक बनने के लिए उसे अपने मूल देश का पासपोर्ट सरेंडर करना होता है. इसके बाद उसकी एक शपथ होगी और उसे कनाडा का पासपोर्ट मिल जाएगा. कनाडा का पासपोर्ट मिल जाएगा और वह व्यक्ति कनाडा का नागरिक हो जाएगा. यूं PR कार्ड धारक को भी लगभग वही सुविधाएं मिलती हैं जो नागरिक को. सिर्फ वोट देने और सेना में भर्ती होने का अधिकार नहीं मिलता. लेकिन जो लोग स्टूडेंट वीज़ा और वर्क परमिट ले कर जाने वालों को ये सुविधाएं नहीं मिलतीं. जो लोग स्टूडेंट वीज़ा ले कर जाते हैं, उन्हें मुफ़्त में कुछ नहीं मिलता. किसी भी अच्छी यूनिवर्सिटी में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा तो पास करनी ही पड़ेगी. इसके बाद हर डिग्री या डिप्लोमा पाने की फ़ीस देनी पड़ती है. आम तौर पर मास्टर डिग्री पाने का खर्च एक से दो लाख कनेडियन डालर के बीच होता है. अर्थात् लगभग एक से सवा करोड़ रुपयों के बीच.
उज्ज्वल भविष्य की चाह में वर्तमान गिरवी
भारत से जाने वाले छात्रों के माता-पिता अपनी ज़मीन जायदाद बेच कर अथवा गिरवी रख कर बैंक से कर्ज लेते हैं. अपने बच्चों के भरोसे वे अपना सारा भविष्य गिरवी रख देते हैं. डिग्री या डिप्लोमा के बाद उसे अच्छी जॉब मिल गई तब तो ठीक अन्यथा पूरी जिंदगी गिरवी में चली जाती है. वैसे अगर बच्चे ने अच्छी और नामी यूनिवर्सिटी से डिग्री ली हुई है तो उसके जॉब पाने के अवसर अधिक होते हैं. वहां भी भारत की तरह कई कॉलेज और यूनिवर्सिटी इस तरह के हैं जिनकी डिग्री को सब जगह मान्यता नहीं मिलती. इसके अतिरिक्त इतनी फीस और हवाई जहाज़ का किराया देने के बाद छात्र को वहां अपने रहने और खाने का खर्च खुद उठाना पड़ता है. इसके लिए विदेशी छात्रों को सप्ताह में बीस घंटे मिलते हैं, जिनमें वे कोई काम कर सकते हैं. अधिकांश छात्र किसी रेस्तरां में वेटर या किसी शॉपिंग माल में लोडर आदि का काम कर लेते हैं.
कनाडा में जीवन बहुत कठिन है
इसके बाद छात्रों को कनाडा में वहां की भयानक शीत का सामना करना पड़ता है. साल के छह महीने तो वहां बर्फ़वारी होती है. टोरंटो, ऑटवा या मांट्रियाल में तो बहुत ठंड पड़ती है. संयोग से अच्छी यूनिवर्सिटीज भी यहीं है. वैंकूवर में थोड़ी कम ठंड है, फिर भी सर्दियों में पारा वहां भी माइनस टेन तक तो जाता ही है. ऐसी ठंड के लिए छात्रों को सर्दियां आते ही वहां के हिसाब से पारका (भारी भरकम जैकेट) ख़रीदने पड़ते हैं. कनाडा में डालर भले मिलते हों पर महंगाई तो काफ़ी है. एक कनाडाई डालर 60 से 62 भारतीय रुपयों के क़रीब है. बच्चा घर से पैसा मंगवाने में सक्षम नहीं होता और वहां इन कपड़ों की ख़रीदारी उसे करनी ही पड़ती है. ऐसे मौक़ों पर फूड बैंक का बड़ा सहारा होता है. यहां पर कपड़े भी फ्री मिल जाते हैं. ये वे पुराने कपड़े होते हैं, जिन्हें कुछ लोग ग़रीबों के लिए वहां छोड़ जाते हैं.
लेफ्ट ओवर से करुणा!
ईसाई धर्म में करुणा का बड़ा महत्त्व है. इसी करुणा को कार्ल मार्क्स ने अफ़ीम कहा था. धर्म को अफ़ीम बताने वाले उनके उद्धरण का अक्सर उल्लेख होता है. जबकि वे धर्म की बजाय करुणा कहना चाह रहे थे. उनकी व्याख्या के अनुसार धर्म में जिस करुणा का वर्णन है, वह करुणा अपने से कमतर के लिए जागृत होती है. अर्थात् करुणा तब ही फले-फूलेगी जब समाज का एक तबका गरीब रहे, असहाय रहे तब ही अमीर आदमी उसके प्रति करुणा प्रदर्शित करेगा. इसीलिए धर्म अफीम है. ये फूड बैंक और पुराने कपड़ों को दान करने की परंपरा लेफ़्ट ओवर से भी आती है. यानी खुद के उपभोग से जो बच गया, उसे दान कर देना ताकि वह ग़रीबों और असहायों के काम आ सके. लेकिन अब समाज में पुराने वेल्यूज भी बदल रहे हैं. मुफ़्त में मिलने वाली चीज़ को लेकर लोग उसे एकत्र करने लगते हैं. और उनमें मुनाफा खोज लेते हैं.
मेहुल प्रजापति के वीडियो ने भारतीयों को बदनाम किया
यही मेहुल प्रजापति ने किया. उसने बताया कि वह फूड बैंक से मुफ़्त में ग्रोसरी लेकर हफ़्ते में 400 डॉलर बचा लेता है. उसने इसे अपनी उपलब्धि मानकर सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर डाल दिया. बस यहीं गड़बड़ हो गई. उसने सोचा नहीं होगा कि हिंदी में किया गया यह वीडियो कहर ला देगा! कनाडा के मूल श्वेत व अश्वेत समुदाय तथा मूल निवासी इधर कुछ वर्षों से वहां बढ़ रही एशियाई आबादी से घबराये हुए हैं. चीनी लोग वहां पढ़ाई और कमाई करते हैं. मगर भारतीय उछल कूद भी करते हैं. कनाडा के लोगों ने हंगामा किया और नतीजा यह हुआ कि फ़ूड बैंक में विदेशी छात्रों के जाने पर मनाही हो गई. एक छात्र के बड़बोलेपन का खामियाजा उन्हें उठाना पड़ा जो वाकई कनाडा में बहुत कठिनाई से जीवन काट रहे हैं. भारतीय छात्रों के लिए ये फूड बैंक बहुत काम के थे. अब उनको वहां पर रहने, खाने के लिए पहले से अधिक श्रम करना होगा.
भविष्य की चाह में वर्तमान गिरवी… कनाडा फूड बैंक्स में भारतीय छात्रों पर क्यों लगी रोक?
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