दुनियां – US-रूस की उम्मीद, चीन को ताकत का एहसास…तीनों देशों से कैसे हैं भारत के संबंध? – #INA

पिछले दिनों लेफ़्टिनेंट जनरल रैंक के एक रिटायर्ड सैन्य अधिकारी ने निजी बातचीत में कहा था, हम रूस की किसी भी बात की निंदा नहीं कर सकते. तथा चीन के किसी भी कदम की तारीफ नहीं कर सकते. उन्होंने कहा था कि हमारे देश की जनता रूस की मित्रता की क़ायल है और चीन पर भरोसा नहीं करती. एक बार को पाकिस्तान के प्रति भारतीय लोगों का स्नेह छलकने लगता है लेकिन चीन से उसे दूरी ही पसंद है. चीन में यदि बौद्ध धर्म पनपा न होता तो भारतीय लोग चीन का नाम सुनना तक पसंद न करते.
मंगलवार से रूस के कजान में शुरू हुए ब्रिक्स (BRICS) के सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन के समक्ष इसी दोस्ती का आभार जताया. और फिर कहा कि रूस हमारा सबसे भरोसेमंद मित्र है और रहा है. कजान में भारत के वाणिज्य दूतावास का उद्घाटन भी खोला उन्होंने किया.
भारत और चीन के बीच समझौता
उधर चीन ने सीमा के पास से अपने सैनिकों को हटाने का वायदा भी कर दिया है. कहा है कि हम अपने विवाद मिल-जल कर सुलझा लेंगे. दोनों देशों ने परस्पर गलवान विवाद के पहले की स्थिति (मई 2020 के पूर्व वाली) को बहाल करने की घोषणा की है. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 21 अक्टूबर को कहा था कि भारत और चीन में सीमा पर पेट्रोलिंग सिस्टम को लेकर समझौता हो गया है.
मंगलवार को चीन ने भी इसकी आधिकारिक घोषणा कर दी. इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कजान जाने के पूर्व सोमवार 21 अक्टूबर को यह कह दिया कि भारत और चीन में सीमा विवाद पर समझौते पर सहमति बन गई है. इससे यह तय हो जाएगा कि मई 2020 तक भारतीय सैनिक सीमा पर जहां तक गश्त कर रहे थे, वहां तक फिर से गश्त कर पाएंगे.
रूस-यूक्रेन युद्ध ने हालात बदले
मगर चीन को लेकर भारतीय मानस अभी संशय में है. उसे क़तई भरोसा नहीं है कि चीन अपने वायदे के अनुरूप आचरण करेगा. देशवासी 1962 को भूले नहीं हैं, जब पंचशील के ख़िलाफ़ जा कर उसने भारत पर धावा बोल दिया था. इसके अलावा नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान आदि जिस किसी भी देश ने चीन पर भरोसा किया, वह बर्बाद हो गया. चीन के शासकों ने जब अपने ही देश के बड़े व्यवसायियों को नहीं छोड़ा तब भला वह किसका सगा होगा. लेकिन यह बात भी सच है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते दुनिया अब सीधे-सीधे दो ध्रुवीय होती जा रही है.
पौने तीन वर्ष से यह युद्ध चल रहा है किंतु अलग-थलग पड़ जाने के बावजूद रूस की हिम्मत पस्त नहीं हुई. उधर नाटो (NATO) ख़ासकर अमेरिका से लगातार हथियारों की आपूर्ति से छोटा-सा देश यूक्रेन युद्ध भूमि में डटा है.
रूस-अमेरिका को मोदी से उम्मीद
इस युद्ध से इतनी तबाही आ चुकी है कि रूस और अमेरिका दोनों चाहते हैं कि युद्ध रुक जाए. मज़े की बात कि दुनिया के इन बादशाहों को उम्मीद सिर्फ नरेंद्र मोदी से है. सबको लगता है कि भारत यदि पहल करे तो युद्ध रुक सकता है. नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को पुतिन से संवाद करते हुए स्पष्ट कहा कि यूक्रेन से विवाद परस्पर बातचीत से ही हल हो सकता है. एक तरह से उन्होंने रूस और यूक्रेन दोनों से शांति का रास्ता अपनाने की अपील की. उन्होंने यह भी कहा, कि तीन महीने में ही दो बार रूस आने का उनका मक़सद इस विवाद को हल करवाने में सकारात्मक भूमिका अदा करने का है.
कजान में नरेंद्र मोदी का जिस गर्मजोशी से स्वागत हुआ, उससे भी पता चलता है कि पुतिन को भी भारत से ही उम्मीद है. रूस का सर्वोच्च सम्मान पाने के बाद भी वे नरेंद्र मोदी यूक्रेन जा कर जेलेंस्की से मिले थे. मगर पुतिन ने इसका बुरा नहीं माना.
चीन को भी विवाद बढ़ाने से नुकसान
शायद यह दबाव भी चीन पर है कि भारत से विवाद न करे. भारत से विवाद का मतलब है चीन द्वारा अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मार लेना. इसीलिए अब चार वर्ष बाद चीन भारत के सामने झुकता दिख रहा है. मई 2020 में लद्दाख के गलवान क्षेत्र में जो झड़प हुई थी, उसमें 20 भारतीय सैनिक और कई चीनी फ़ौजी भी मारे गए थे. उसके बाद से दोनों देशों के बीच तनातनी बढ़ गई थी. इसके बाद 9 दिसंबर 2022 को अरुणाचल के तवांग क्षेत्र में फिर हिंसक झड़प हुई थी. इस घटना से तनाव इतना बढ़ा कि सीमा पर दोनों देशों ने भारी संख्या में सैनिक तैनात किए. चीन ने LAC के पास अपनी गश्ती नावें लगा दीं. भारत ने आरोप लगाया कि चीन गलवान क्षेत्र में अवैध निर्माण कर रहा है. पलट कर चीन ने भारत पर यही आरोप लगाया.
दोनों के दावे-प्रतिदावे
भारत और चीन की सीमा भी अस्पष्ट है. पश्चिमी सेक्टर यानी लद्दाख से लगी सीमा पर भारत का दावा है कि 1962 युद्ध के दौरान चीन ने उसका 12000 किमी का इलाका दबा लिया था. अक्साई चिन का यह इलाक़ा उसका है. दूसरी तरफ चीन अरुणाचल पर दावा करता है. वह कहता है, कि अंग्रेजों ने दक्षिणी तिब्बत का यह क्षेत्र दबा लिया था और 1914 में मैकमोहन लाइन खींच कर इसे ब्रिटिश इंडिया में इसे शामिल कर लिया था. आज़ादी के बाद यह भारत के हिस्से में ही रहा. चीन का कहना है कि मैकमोहन लाइन जब खींची गई तब समझौता ब्रिटिश इंडिया के अधिकारियों और तिब्बत के बीच हुआ था, चीन को उसमें नहीं शरीक किया गया था. मालूम हो कि चीन सदा से तिब्बत को चीन का अभिन्न हिस्सा मानता चला आ रहा है.
डॉलर की चौधराहट के ख़त्म होने का डर
आज की तारीख में ब्रिक्स देश काफी मजबूत स्थिति में हैं. दुनिया के 9 बड़े तेल निर्यातकों में से 6 ब्रिक्स से जुड़ गए हैं. रूस, ब्राजील, चीन, भारत और साउथ अफ्रीका इसके शुरुआती सदस्य थे मगर अब इसकी 16 वीं बैठक में ईरान, संयुक्त अरब अमीरात (UAE), सउदी अरब, मिस्र और इथियोपिया नए सदस्य भी जुड़ गए हैं. विश्व के 37 प्रतिशत तेल पर इन देशों का क़ब्ज़ा है. इन देशों की GDP इतनी अधिक है कि G-7 बहुत पिछड़ गए हैं. यही वजह है कि अमेरिका (USA) भी इस गठबंधन से घबराया हुआ है.
ब्रिक्स देशों में अधिकांश अमेरिका विरोधी भी हैं. भारत और साउथ अफ़्रीका खुल कर विरोध भले न करते रहे हों लेकिन अमेरिका के पिछलग्गू तो नहीं ही हैं. दरअसल ब्रिक्स देशों का संगठन बना ही इसलिए था ताकि G-7 की दादागिरी से निपटा जा सके. अमेरिका को अपने डॉलर की चौधराहट ख़त्म होती नज़र आ रही.
ब्रिक्स जब बना था तब रूस को छोड़ कर सभी देश इसमें विकासशील थे. मगर आज स्थिति उलट गई है. GDP और प्राकृतिक संसाधनों के चलते ये देश G-7 से कमतर नहीं रहे. यही कारण रहा कि पिछली बार जब G-7 की इटली में शिखर बैठक हुई तो उसमें भारत को विशिष्ट अतिथि के रूप में बुलाया गया था. भारत पहले भी G-7 की बैठकों में जा चुका है. G-7 के देश अब भारत को भी इसमें शामिल करने की बात भी करने लगे हैं. ऐसे में अमेरिका को ब्रिक्स की बैठक में भारत से काफ़ी उम्मीदें हैं. कुछ कूटनीतिक लोग तो यह भी कहते हैं कि भारत को अर्दब में लेने के लिए अमेरिका ने कनाडा को लगा रखा है. ताकि ख़ालिस्तान का भय दिखा कर भारत को अपने पाले में लाया जा सके. यद्यपि नरेंद्र मोदी काफी घुटे हुए राजनेता हैं. वे न तो अमेरिका से पूरी तरह से दूरी बनाये हैं न रूस को नाराज़ कर रहे हैं.
चीन पर रूस का दबाव
यही कारण है कि रूस ने भारत को अपने पाले में बनाये रखने के लिए परोक्ष रूप से चीन पर दबाव डाला कि वह भारत से विवाद न करे और सीमा के बाबत संवाद करे. तीन दिन तक चलने वाले इस सम्मेलन में संभवतः मोदी और शी ज़िनपिंग की द्विपक्षीय वार्ता भी होगी. यह भी एक उपलब्धि होगी. अगर भारत यूक्रेन-रूस और इज़राइल व हमास का कोई हल विश्वमंच पर निकलवा सका तो यह नरेंद्र मोदी की बड़ी जीत होगी. फिलहाल रूस, अमेरिका और चीन तीनों की गरज है. सब चाहते हैं कि मोदी अपने वाक्-चातुर्य से इन युद्धों के बीच मध्यस्थ बन जाएं. यह दिलचस्प है की तुर्किए के राष्ट्रपति एर्दोआन मध्यस्थता के इच्छुक हैं, लेकिन उन पर इनमें से किसी को भरोसा नहीं है. यह संयोग है कि रजब तैयब एर्दोआन भी 2014 से तुर्किये के राष्ट्रपति हैं. उन्होंने भी अपने देश में खूब ध्रुवीकरण किया है.
इंडियन डायसपोरा की ताकत
आज चीन के द्वारा भारत के साथ मई 2020 के पहले वाली स्थिति में आ जाने का अर्थ यही है कि भले ऊपरी तौर पर हो चीन भारत को अब 1962 वाला भारत समझने की भूल नहीं करेगा. भारत विश्व राजनीति में एक बड़ी ताकत है. जनसंख्या की दृष्टि से वह नम्बर वन है. उसका माल भी खूब निर्यात हो रहा है. साथ ही भारतीय लोग अब पूरी दुनिया में फैल गए हैं तथा अपनी ताकत, बौद्धिक कौशल का प्रदर्शन भी उन्होंने किया है. यह इंडियन डायसपोरा भी भारत को और नरेंद्र मोदी को शिखर पर पहुंचाने को बेताब है.

Copyright Disclaimer Under Section 107 of the Copyright Act 1976, allowance is made for “fair use” for purposes such as criticism, comment, news reporting, teaching, scholarship, and research. Fair use is a use permitted by copyright statute that might otherwise be infringing. Non-profit, educational or personal use tips the balance in favor of fair use.

सौजन्य से टीवी9 हिंदी डॉट कॉम

Source link

Back to top button