UP News: UP: खौलते तेल में खड़े होकर माता को कर्ण ने किया था प्रसन्न, यहां होती है खंडित मूर्तियों की पूजा, कहानी 2000 साल पुरानी इस मंदिर की – INA

उत्तर प्रदेश के औरैया में माता कर्ण देवी का मंदिर है. इटावा की सीमा से सटे बीहड़ में यमुना नदी के किनारे स्थित इस मंदिर में माता का दर्शन करने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं. चैत्र नवरात्रि पर यहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी है. ऐसी मान्यता है कि कर्ण देवी के मंदिर में जो भी भक्त श्रद्धा से माता की पूजा करता है, उसकी सभी मनोकामनाएं जरूर पूरी होती हैं. यहां की ऐतिहासिक खंडित मूर्तियों को देखने के लिए उत्तर भारत के अलावा मध्य भारत से हजारों सैलानी भी आते हैं.

मान्यता है कि इस मंदिर में देवी मां की स्थापना राजा कर्ण ने कराई थी. दानवीर राजा कर्ण माता कर्ण देवी के आशीर्वाद से प्राप्त सवा मन सोना प्रतिदिन प्रजा को बांटते थे. कहा जाता है कि माता को प्रसन्न करने व उनकी कृपा पाने के लिए राजा कर्ण ने खौलते तेल में खड़े होकर अपना शरीर मां को समर्पित कर दिया था, जिससे प्रसन्न होकर कर्ण देवी ने उन्हें प्रतिदिन सवा मन सोना उपहार स्वरूप देने का आशीर्वाद दिया था.

कर्ण और विक्रमादित्य की कहानी

राजा कर्ण की सवा मन सोने को प्रतिदिन दान देने की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई थी. जब राजा कर्ण के प्रतिदिन सवा मन सोने के दान करने की जानकारी मध्य प्रदेश स्थित उज्जैन के राजा विक्रमादित्य को हुई तो वह राज जानने के लिए राजा कर्ण के यहां आकर अपना परिचय छिपाकर रुक गए और नौकरी करने लगे.

एक दिन राजा विक्रमादित्य ने देखा कि राजा कर्ण ब्रह्म मुहूर्त में खौलते तेल में खड़े होकर माता रानी की पूजा करते हैं. तब खुश होकर माता उन्हें सवा मन सोना दान करने का वरदान देती हैं. इसके बाद एक दिन राजा विक्रमादित्य ने राजा कर्ण का वेश धारण करके खौलते तेल में खड़े होकर माता रानी की पूजा शुरू की. माता ने उन्हें पहचान लिया और वर मांगने को कहा.

तलवार से खंडित कर दी मूर्ति

राजा विक्रमादित्य ने उनसे अपने राज्य उज्जैन चलने का आग्रह किया, मगर माता ने मना कर दिया. इनकार सुनकर क्रोध के वशीभूत होकर राजा विक्रमादित्य ने तलवार से प्रहार कर दिया, जिससे मूर्ति दो टुकड़ों में बंट गई. विक्रमादित्य ने विभाजित मूर्ति के धड़ को उज्जैन में लाकर स्थापित किया. वहां हरि सिद्धि देवी के नाम से आज भी पूजा-अर्चना की जाती है, जबकि आधे खंडित भाग को राजा कर्ण ने मंदिर में स्थापित कर दिया, जिन्हें कर्ण देवी के नाम से भक्त पूजते हैं. यहां पर प्रतिवर्ष लाखों की तादाद में भक्त आते हैं. प्राचीन काल की मूर्तियां यहां खंडित अवस्था में विराजमान है.

UP: खौलते तेल में खड़े होकर माता को कर्ण ने किया था प्रसन्न, यहां होती है खंडित मूर्तियों की पूजा, कहानी 2000 साल पुरानी इस मंदिर की





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उत्तर प्रदेश के औरैया में माता कर्ण देवी का मंदिर है. इटावा की सीमा से सटे बीहड़ में यमुना नदी के किनारे स्थित इस मंदिर में माता का दर्शन करने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं. चैत्र नवरात्रि पर यहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी है. ऐसी मान्यता है कि कर्ण देवी के मंदिर में जो भी भक्त श्रद्धा से माता की पूजा करता है, उसकी सभी मनोकामनाएं जरूर पूरी होती हैं. यहां की ऐतिहासिक खंडित मूर्तियों को देखने के लिए उत्तर भारत के अलावा मध्य भारत से हजारों सैलानी भी आते हैं.

मान्यता है कि इस मंदिर में देवी मां की स्थापना राजा कर्ण ने कराई थी. दानवीर राजा कर्ण माता कर्ण देवी के आशीर्वाद से प्राप्त सवा मन सोना प्रतिदिन प्रजा को बांटते थे. कहा जाता है कि माता को प्रसन्न करने व उनकी कृपा पाने के लिए राजा कर्ण ने खौलते तेल में खड़े होकर अपना शरीर मां को समर्पित कर दिया था, जिससे प्रसन्न होकर कर्ण देवी ने उन्हें प्रतिदिन सवा मन सोना उपहार स्वरूप देने का आशीर्वाद दिया था.

कर्ण और विक्रमादित्य की कहानी

राजा कर्ण की सवा मन सोने को प्रतिदिन दान देने की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई थी. जब राजा कर्ण के प्रतिदिन सवा मन सोने के दान करने की जानकारी मध्य प्रदेश स्थित उज्जैन के राजा विक्रमादित्य को हुई तो वह राज जानने के लिए राजा कर्ण के यहां आकर अपना परिचय छिपाकर रुक गए और नौकरी करने लगे.

एक दिन राजा विक्रमादित्य ने देखा कि राजा कर्ण ब्रह्म मुहूर्त में खौलते तेल में खड़े होकर माता रानी की पूजा करते हैं. तब खुश होकर माता उन्हें सवा मन सोना दान करने का वरदान देती हैं. इसके बाद एक दिन राजा विक्रमादित्य ने राजा कर्ण का वेश धारण करके खौलते तेल में खड़े होकर माता रानी की पूजा शुरू की. माता ने उन्हें पहचान लिया और वर मांगने को कहा.

तलवार से खंडित कर दी मूर्ति

राजा विक्रमादित्य ने उनसे अपने राज्य उज्जैन चलने का आग्रह किया, मगर माता ने मना कर दिया. इनकार सुनकर क्रोध के वशीभूत होकर राजा विक्रमादित्य ने तलवार से प्रहार कर दिया, जिससे मूर्ति दो टुकड़ों में बंट गई. विक्रमादित्य ने विभाजित मूर्ति के धड़ को उज्जैन में लाकर स्थापित किया. वहां हरि सिद्धि देवी के नाम से आज भी पूजा-अर्चना की जाती है, जबकि आधे खंडित भाग को राजा कर्ण ने मंदिर में स्थापित कर दिया, जिन्हें कर्ण देवी के नाम से भक्त पूजते हैं. यहां पर प्रतिवर्ष लाखों की तादाद में भक्त आते हैं. प्राचीन काल की मूर्तियां यहां खंडित अवस्था में विराजमान है.

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