देश- बिहार के चुनावी दंगल में कब तक टिकेंगे प्रशांत किशोर? जन सुराज की राह में ये 3 रोड़े- #NA

जन सुराज के सूत्रधार प्रशांत किशोर

चुनावी रणनीति से सक्रिय राजनीति में आने वाले प्रशांत किशोर 2025 के विधानसभा चुनाव से ठीक 12 महीने पहले बिहार में अपनी पार्टी लॉन्च कर दी है. पार्टी का नाम जन सुराज रखा गया है और दलित समुदाय के मनोज भारती इसके कार्यकारी अध्यक्ष होंगे. गांधी मॉडल पर गठित जन सुराज 2025 के विधानसभा चुनाव में बिहार की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

हालांकि, प्रशांत के लिए यह राह आसान नहीं है. कहा जा रहा है कि प्रशांत तभी बिहार की सियासत में टिकेंगे, जब वो राज्य के 3 सियासी मिथक को तोड़ पाएंगे. वरना जन सुराज का हाल भी उन्हीं 10 पार्टियों की तरह होगी, जो पिछले 24 साल में गठित होकर बिहार की सत्ता में अपने आस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है.

जन सुराज की राह क्यों नहीं है आसान?

1. नवगठित पार्टियों का ट्रैक रिकॉर्ड सही नहीं- बिहार में पिछले 24 साल में 10 पार्टियां गठित हुईं. इनमें से एक भी पार्टी राज्य की सत्ता में नहीं आ पाई. कुछ पार्टी जरूर सफल हुईं, लेकिन सिर्फ एक इलाके में. नवगठित कई पार्टियां धीरे-धीरे खत्म भी हो गईं.

साल 2000 से अब तक बिहार में जिन पार्टियों का गठन हुआ है, उनमें लोजपा, राजद (लोकतांत्रिक), राष्ट्रीय समता पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, हम (सेक्युलर), जन अधिकार पार्टी, विकासशील इंसान पार्टी, प्लुरल्स पार्टी, राष्ट्रीय शोसित समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक मोर्चा का नाम प्रमुख हैं.

राजद (लोकतांत्रिक) लोजपा, हम (सेक्युलर) और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता केंद्र में मंत्री बनने में कामयाब रहे. बाकी पार्टी न तो बिहार और न ही केंद्र में कमाल कर पाई.

इन 24 साल में जहां 10 पार्टियां गठित हुई, वहीं उनमें से 4 पार्टियां ऐसी भी रही, जो खत्म हो गई. जिन पार्टियों का आस्तित्व खत्म हो गया, उनमें राजद (लोकतांत्रिक), जन अधिकार पार्टी, राष्ट्रीय समता पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का नाम शामिल हैं.

इन आंकड़ों को अगर आधार माना जाए तो बिहार में नई पार्टियों का जो ट्रैक रिकॉर्ड है, वो प्रशांत किशोर के पक्ष में नहीं है.

2. प्रशांत किशोर की छवि भी एक बड़ा मुद्दा– प्रशांत किशोर की छवि भी एक मुद्दा बड़ा मुद्दा है. पिछले 10 साल में प्रशांत किशोर 8 पार्टियों के साथ काम कर चुके हैं. 2011 से 2014 तक उन्होंने बीजेपी के साथ काम किया. इसके बाद वे कुछ सालों के जेडीयू के साथ जुड़ गए.

पीके इसके बाद कांग्रेस के साथ जुड़ गए. उन्होंने यूपी और पंजाब में कांग्रेस के लिए काम भी किया. पीके 2019 में शिवसेना (उद्धव) और जगन मोहन की पार्टी के लिए रणनीति बनाते नजर आए. 2020 में वे अरविंद केजरीवाल के साथ आ गए.

2021 में प्रशांत किशोर ममता बनर्जी की पार्टी के लिए काम करते नजर आए. इसी साल उन्होंने एमके स्टालिन के लिए भी रणनीति बनाने का काम किया. 2021 में प्रशांत किशोर ने चुनावी रणनीति से खुद को अलग कर लिया.

प्रशांत 2022 में कांग्रेस हाईकमान के संपर्क में आए. उस वक्त उनके कांग्रेस में जाने की भी खबर थी, लेकिन आखिरी वक्त पर पीके की जॉइनिंग टल गई. पीके इसके बाद बिहार आ गए.

जेडीयू के राष्ट्रीय महासचिव मनीष कुमार वर्मा पीके की इसी छवि को मुद्दा बना रहे हैं. मनीष वर्मा के मुताबिक पीके की कोई विचारधारा नहीं है.

3. बिहार में वोट कटवा बन कर रह गया तीसरा मोर्चा– 2015 का चुनाव हो या 2020 का, बिहार में दो मुख्य गठबंधन के इतर चुनाव लड़ने वाली बड़ी पार्टियां वोट कटवा बनकर ही रह गई. 2015 में एक तरफ बीजेपी नीत एनडीए गठबंधन था, जिसमें रालोसपा, लोजपा और हम जैसे दल शामिल थे.

दूसरी तरफ जेडीयू, कांग्रेस और आरजेडी का महागठबंधन था. लेफ्ट मोर्चा भी पूरी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने के लिए मैदान में उतर पड़ी. हालांकि, लेफ्ट सिर्फ वोट कटवा साबित हो पाई. लेफ्ट को बिहार की 243 में से सिर्फ 3 सीटों पर जीत मिली.

वोट प्रतिशत की बात की जाए तो इस चुनाव में लेफ्ट को सिर्फ 3.5 प्रतिशत वोट मिले. 2020 में बिहार में लोजपा तीसरी पार्टी के रूप में अकेले मैदान में उतरी. लोजपा की लड़ाई एनडीए की जेडीयू, बीजेपी और हम से थी.

मैदान में महागठबंधन की तरफ से कांग्रेस और आरजेडी भी लड़ रही थी. इस चुनाव में लोजपा भी वोट कटवा पार्टी साबित हुई. 5.66 प्रतिशत वोट लाने वाली लोजपा को बिहार विधानसभा की सिर्फ एक सीट पर जीत मिली.

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