दुनियां – क्या हिंदू क्या मुस्लिम…अपने पितरों को सभी करते हैं याद, चीन-जापान तक में भी है ये रिवाज – #INA
यह सितंबर 2001 की बात है. कोलकाता में पूरे हेस्टिंग रोड पर पानी भरा हुआ था. हुगली का पानी उछल-उछल कर बड़ा बाजार की गलियों को अपने घेरे में ले रहा था. वे श्राद्धों के दिन थे. एक दिन अलीपुर स्थित अपने आवास से बीके पॉल एवेन्यू के अपने दफ्तर आते हुए मुझे असंख्य औरतें दिखीं जो साड़ी कमर में खोंसे इस पानी के बीच खड़ी बादलों से ढके सूर्य को जल अर्पण कर रही थीं. मैंने अपने ओड़िया ड्राइवर से पूछा, यह क्या हो रहा है. उसने बताया, ये लोग अपने पितरों का तर्पण कर रहे हैं. तब तक उत्तर भारत में स्त्रियां पितर तर्पण नहीं करती थीं. लेकिन बंगाल में पुरुष सत्ता इतनी प्रभावी कभी नहीं रही. वहां स्त्रियां पहले से पितर तर्पण करती आ रही हैं. उत्तर में तो अभी भी इस तरह के दृश्य आम नहीं हैं. वे महिलाएं कोई बिहार या यूपी की नहीं थीं बल्कि विशुद्ध बंगाली थीं.
शुभ कार्य की वर्जना
भादों की पूर्णिमा से लेकर क्वार की अमावस्या तक सनातन हिंदू परंपरा में श्राद्ध पक्ष मनाया जाता है. इनमें से भादों की पूर्णिमा को आप थोड़ी-बहुत खरीदारी या शुभ कार्य कर सकते हैं लेकिन क्वार की प्रतिपदा से अमावस्या तक बिल्कुल नहीं. यह विश्वास वर्षों से चला आ रहा है. कई राजनीतिक दल तो अपनी चुनावी घोषणाएं तक टाल जाते रहे हैं. आम मान्यता है कि इन दिनों पितर अपने लोक से उतर कर नीचे पृथ्वी पर आते हैं. इन दिनों अपने पितरों के लिए हिंदू परंपरा में दीक्षित लोग श्रद्धा से पुरोहितों को वह भोजन कराते हैं, जो उनके मृत पितरों को पसंद था. पुरोहितों के अलावा कुत्तों और कौओं के लिए भी निवाला निकाला जाता है. पितरों की पसंद के कपड़े दान किए जाते हैं. यहां तक कि बिस्तर को भी दान करने की प्रथा है. शोक के दिन होने के कारण इन दिनों बाजार में सन्नाटा रहता है. न केवल हिंदू बल्कि आर्य समाज, सिख, जैन और बौद्ध भी इन दिनों खरीदी से बचते हैं. हालांकि उनके यहां कोई धार्मिक बाध्यता नहीं है.
पितरों का स्मरण करना
वेदों या उपनिषदों में श्राद्ध मनाए जाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है. अलबत्ता सभी पुराणों में पितर तर्पण और श्राद्ध का उल्लेख अवश्य है. माना गया कि जब मनुष्य के शरीर में आत्मा है तो वह मृत्यु के बाद भी रहती होगी. उपनिषदों में हर मनुष्य के अंदर एक जैसी आत्मा का वास बताया गया है. परंतु बाद में पुनर्जन्म की धारणा भी आई. जब आत्मा किसी नये शरीर में पहुंच गई तो वह कैसे आएगी? इस चिंतन में यह बात स्पष्ट नहीं है कि जब पुनर्जन्म हो गया तो पितर तो किसी और योनि में चले गए होंगे फिर उनके लिए श्राद्ध और तर्पण कैसा! सत्य तो यह है कि श्राद्ध अपने पितरों को याद करने का दिन है. चूंकि हर मनुष्य की मृत्यु पूर्णिमा से अमावस्या के बीच किसी तिथि को हुई होगी इसलिए उस विशेष तिथि को अपने दिवंगत मां-पिता अथवा दादा-दादी की याद में श्राद्ध का आयोजन करते हैं. इस संपूर्ण पखवारे में सूर्य को जल देने से आशय है, भूले-बिसरे सभी पुरखों का स्मरण करना.
सभी जगह पितरों को याद किया जाता है
आम लोगों को अपने पिता-दादा और मां तथा उसके पिता का नाम याद रहता है. शेष पूर्व पुरुषों का कोई लेखा-जोखा नहीं रहता. जब भारत में ढाई हजार साल पहले के राजा-महाराजाओं तक का कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है, फिर सामान्य लोगों का कहां से होगा. यद्यपि इन पितृ-पुरुषों को सनातनी परंपरा में अक्सर आह्वान किया जाता है. शादी-विवाह तथा अन्य संस्कारों में भी उनका आह्वान होता है. महिलाएं गीत गाती हैं. ‘फलाने बाबा तुमहूँ निमंते!’ अर्थात् हे दिवंगत पुरखों, तुम भी इस शादी में आमंत्रित हो. आओ और हमारे इस कल्याण या आनंद कार्य में शामिल हो तथा आशीर्वाद दो. यह महज एक भावना है, कि जिन पुरखों की हम संतति हैं, वे हमारे साथ सदैव रहेंगे. भले वे आज जीवित न हों. लेकिन पुरखों को याद करने की परंपरा अकेले भारत में ही नहीं है, बल्कि दुनिया भर में अपने-अपने पितरों को स्मरण करने के लिए अलग-अलग परंपराएं निर्धारित हैं.
गुनाहों की माफी का पर्व
अब्राहमिक (यहूदी, ईसाई और इस्लाम) धर्मों में भी पितरों को याद करने की परंपरा खूब मिलती है. मुसलमानों में शबेरात (शब-ए-बारात) इसी स्मृति का एक उदाहरण है. हालांकि यह एक तरह से क्षमा मांगने पर्व भी है. क्योंकि शब यानी रात और बारात अर्थात् बरी होना. यानी इस रात को व्यक्ति की माफी कबूल हो गई. शबेरात को इस्लाम के अनुयायी अपने पुरखों की कब्र पर जा कर साफ-सफाई करते हैं और फूल चढ़ाते हैं. वहां कुरान भी पढ़ी जाती है. इस दिन अपने-अपने गुनाहों से तौबा भी की जाती है. मुसलमान फजर की अजान के बाद रोजा रखते हैं और नमाज अदा करते हैं. सूर्य डूबने के बाद समाज के सभी लोग अपने पुरखों की क्रब पर जाकर अगरबत्ती जलाते हैं, फूल चढ़ाते हैं और अल्लाह से उनके गुनाहों की माफी मांगते हैं. शाबान महीने की पन्द्रहवीं रात को यह परंपरा निभाई जाती है.
All Souls Day की परंपरा
इसी तरह ईसाइयों में ऑल सोल्ज डे मनाने की परंपरा है. फादर सोलोमन जॉर्ज ने बताया कि हर वर्ष दो नवंबर को यह All Souls Day मनाया जाता है. इस दिन उन सभी संतों और महान आत्माओं का स्मरण किया जाता है, जो स्वर्ग में प्रवेश पा चुके हैं. इसीलिए इस दिन के एक दिन पहले आल सेंट्स डे (All Saints Day) मनाए जाने की परंपरा है. रोमन कैथलिक ईसाई धर्म को मानने वाले लोग इस दिन कब्रों पर जा कर मृत पुरखों का आह्वान करते हैं. कब्रों की सफाई करते हैं और फूल अर्पित करते हैं. यह आत्माओं के परस्पर मेल-मिलाप का दिन है. इस दिन रोमन कैथलिक ईसाई समुदाय बड़ी पवित्रता से समय बिताते हैं. मसलन कोई खेल नहीं खेलते. मनोरंजन हेतु तेज आवाज में संगीत नहीं सुनते. इस दिन शादी-विवाह नहीं किए जाते.
चीन में भी पुरखों की याद के लिए दिन निर्धारित
पितरों को याद करने की एक परंपरा चीन में भी प्रचलित है. छींग मिंग के रोज चीनी लोग अपने मृत पुरखों की क़ब्रों पर जा कर साफ-सफाई करते हैं. इसे ठंडे भोजन का दिन भी कहा जाता है. यह परंपरा हान शी त्योहार से आई. यूं यह चिए ज थोए की याद में मनाया जाता है. ईसा से 732 वर्ष पहले सम्राट शुआनजोंग ने इस त्योहार की शुरुआत की थी. दरअसल उस समय अमीर चीनी लोग अपने पुरखों की स्मृति को अत्यंत भड़कीले और खर्चीले तरीके से मनाते थे. सम्राट इन खर्चों पर अंकुश लगाने के लिए यह परंपरा शुरू की ताकि आम लोग भी अपने पुरखों को सम्मान पूर्वक एक दिन याद कर सकें. सम्राट शुआनजोंग ने अपने देश में मुनादी करवा दी कि अब लोग सिर्फ इस त्योहार के दिन अपने पुरखों को याद करने का जश्न मनाएंगे. इससे पहले की तरह खर्चीला और भड़कीला स्मृति दिवस मनाया जाना बंद हुआ.
जापान का बान पर्व
जापान में भी चीन की भांति पुरखों को स्मरण करने का दिन निर्धारित है. यूं भी दोनों में बहुत-सी समानताएं हैं. दोनों जगह बौद्ध धर्म भारत से पहुंचा. लेकिन चीन में अपना कन्फ्यूसियस दर्शन भी खूब विकसित हुआ. वहां के बौद्धों पर इस दर्शन का व्यापक असर रहा. जापान में सादगी का यह दर्शन अपने उत्कृष्ट काल में पहुंचा. इसके बावजूद जापान में पितरों को याद करने की व्यापक परंपरा है. वहां पर लोग भारत की तरह अपने पुरखों का नाम अपने घर पर भी अंकित करवाते हैं. वहां जुलाई अगस्त के मध्य बान नाम का एक समारोह होता है. माना जाता है, कि इस दिन पितर अपने घरों में वापस आते हैं. यह समारोह खूब जोर-शोर से मनाया जाता है. उस दिन घर पर एक हवन कुंड जैसा बनाया जाता है और इस पर ताजे फूल तथा पके हुए चावल अर्पित किए जाते हैं. कब्रिस्तान में भी बहुत लोग जाते हैं. मान्यता है कि उस दिन पुरखे आते हैं.
पुरोहित की अनावश्यक कड़ी
सनातनी हिंदू परंपरा में कर्मकांड अधिक है. यहां पुरखों और व्यक्ति के बीच पुरोहित है, जो अपने लिए कुछ ऐसे नियम बना देता है, जो अनावश्यक हैं. हो सकता है, गाय, कुत्ता और कौये को निवाला निकालने के पीछे मंशा जैव विविधता को बचाये रखने की हो. मगर अब वे बोझ-सी प्रतीत होती है. इसी तरह ख़रीदी पर इसलिए रोक लगी हो क्योंकि क्वार के कृष्ण पक्ष में धान कट कर घर आता है. और यह पक्ष समाप्त होते ही शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवरात्रि शुरू हो जाती है. उन दिनों बाज़ार में बूम आ जाता है. ब्राह्मण भोजन जैसी परंपराएं भी अब फिजूल लगती हैं. अब हर व्यक्ति धर्म की किताबें पढ़ने को स्वतंत्र है. इसलिए पुरोहित की कड़ी का कोई मतलब नहीं है. अगर धर्म के किसी सूत्र की व्याख्या का सवाल हो तो शंकराचार्य जैसी संस्थाएं तो हैं ही. इसलिए पितरों को याद करिये, मगर कर्मकांड पर अमल उनको परख कर ही करिए.
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सौजन्य से टीवी9 हिंदी डॉट कॉम
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