दुनियां – PM जस्टिन ट्रूडो के पास सबूत नहीं, फिर भी भारत से टेंशन क्यों मोल ले रहा कनाडा? – #INA
आखिरकार कनाडा के प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया कि निज्जर हत्याकांड में उनके पास भारत के खिलाफ कोई सबूत नहीं है. कनाडा की एजेंसियों ने जैसा उन्हें बताया, वैसा उन्होंने स्वीकार कर लिया. एक प्रधानमंत्री इतना लापरवाह हो सकता है, इसकी मिसाल है जस्टिन ट्रूडो. लिबरल पार्टी को 2025 चुनाव में ट्रूडो को पीएम फेस बनाने पर पुनर्विचार करना पड़ेगा. उन्होंने अपनी ओछी हरकतों से कनाडा में रह रहे कोई 40 लाख भारतीयों का जीवन संकट में डाल दिया. इस संख्या में 18 लाख के करीब कनाडा के वोटर हैं. शेष या तो पीआर लेकर रहे हैं या वर्क परमिट पर अथवा स्टूडेंट वीजा पर. एक बड़ी संख्या विजिटर वीज़ा धारकों की भी है. चुनाव जीतने के लिए दुनिया के किसी भी देश ने इस तरह से किसी अन्य देश के साथ अपने डिप्लोमेटिक रिश्ते नहीं बिगाड़े होंगे.
कनाडा में पार्लियामेंट्री मोनार्की है. आज भी ब्रिटेन (UK) का राजा कनाडा का संविधान प्रमुख होता है. अधिकतर आबादी भी श्वेत समुदाय की है. उसमें भी ज्यादातर ब्रिटिश मूल के गोरे हैं. हालांकि फ़्रेंच लोगों की आबादी भी वहां खूब है. क्यूबेक प्रांत में तो चारों तरफ फ़्रेंच दिखते हैं. वहां की फर्स्ट लैंग्वेज भी फ़्रेंच है. पिछली बार हुए रिफरेंडम में सिर्फ एक वोट से क्यूबेक कनाडा में रह गया अन्यथा वह एक अलग देश होता. मजे की बात ये है कि स्वयं जस्टिन ट्रूडो भी फ़्रेंच मूल के हैं. बुधवार को उन्होंने मीडिया के समक्ष यह स्वीकार किया कि ख़ालिस्तान के सपोर्टर और अलगाववादी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के संदर्भ में उन्हें खुफिया सूचनाएं मिली थीं. इसी आधार पर उन्होंने कह दिया कि इस हत्याकांड में भारत की संलिप्तता है.
यूक्रेन ने बिगाड़े हालात
पिछले रविवार को एक डिप्लोमेटिक कम्युनिकेशन में जस्टिन ट्रूडो ने कनाडा स्थित भारत के उच्चायुक्त संजय कुमार वर्मा पर इस हत्या का आरोप लगाया था. इसके बाद तो हंगामा मच गया. भारतीय विदेश मंत्रालय ने फौरन कड़ा रुख लेते हुए कनाडा के कार्यकारी उच्चायुक्त समेत 6 कनाडाई अधिकारियों को भारत छोड़ने का निर्देश दिया. इसका असर दुनिया भर में हुआ. कनाडा का मीडिया और कनाडा के श्वेत समुदाय का दबाव पड़ा और जस्टिन ट्रूडो ने अपनी भूल स्वीकार की. सच बात तो यह है कि ट्रूडो इस समय सबसे कमजोर प्रधानमंत्री हैं. न तो वे कनाडा में बधती महंगाई पर लगाम लगा पा रहे न अपने देश में बेरोजगारी की समस्या से निपट पा रहे हैं. ऊपर से यूक्रेन की मदद ने कनाडा की कमर तोड़ दी है. यूक्रेन के शरणार्थी भी निरंतर आते जा रहे हैं. और वे चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे.
भरपूर संसाधन के बावजूद बहाली
दुनिया का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा देश हर तरह के प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है. न उसके पास प्राकृतिक तेल की कमी है न कोयले की. खाद्यान्न भी पर्याप्त मात्रा में उसके पास है. दुनिया के कुल ताजे जल के 20 प्रतिशत स्रोत अकेले कनाडा के पास हैं. प्रशांत, अटलांटिक और आर्कटिक महासागरों से घिरे कनाडा के पास 243000 किलोमीटर का कोस्टल इलाका है. यहां जल विद्युत परियोजनाएं भी पर्याप्त हैं. इसकी मुख्य समस्या कम आबादी की है और मनुष्य के लिए बहुत ही हार्ड मौसम की भी है. यहां की 90 फीसदी आबादी ब्रिटिश कोलम्बिया, ओंटारियो, क्यूबेक प्रांतों में रहती है. और यह सारे प्रांत अमेरिका (USA) से घिरे हुए हैं. कनाडा से अमेरिका जाना बहुत आसान है. कोई भी कनाडाई नागरिक अमेरिका सुबह गया और शाम को वापस.
नो क्राइम ओन्ली पीस
रहने और शांति के मामले में भी कनाडा अव्वल है. यहां गन कल्चर नहीं है. विश्व के ज़ीरो क्राइम देशों में इसकी गिनती होती रही है. चूंकि आबादी कम है इसलिए व्यवस्थाएं भी चाक-चौबंद हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य फ़्री है. अलबत्ता हायर एजुकेशन जरूर महंगी है. यहां के विश्वविद्यालय टॉप रैंकिंग में हैं. लेकिन पिछले वर्षों में यहां गांजा (मैरीजुआना) पर प्रतिबंध हटा लिया गया. इस वजह से कनाडा के लोगों की बड़ी संख्या नशे में लिप्त है. युवा आबादी गाँजे की तरफ़ बाढ़ रही है. हालांकि कनाडा के सात प्रांतों और तीन रिज़र्ब क्षेत्रों में बहुत सारे क़ानून अलग-अलग हैं. परंतु शराब के लिए 18 वर्ष तक की उम्र का बंधन है. एक और दिक्कत आ रही है जो कनाडा के लोगों को परेशान किए है. वह है कि यहां के लोगों का उच्च शिक्षा से दूर होते जाना.
उच्च शिक्षा में भारतीयों और चीनियों का दबदबा
कनाडा में दक्षिण एशियाई और चीनी मूल के लोग ही अपने बच्चों को दिला पाते हैं. क्योंकि यहां उच्च शिक्षा बहुत महंगी है. लेकिन चीनी, भारतीय, पाकिस्तानी, बांग्ला देशी तथा श्रीलंका के लोग किसी तरह बचत कर अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाते हैं. दूसरे इस मूल के लोगों का संयुक्त परिवार में रहना भी इनके बच्चों के लिए लाभ कारक है. नतीजा यह होता है, कि कनाडा कई मामलों में अमेरिका पर निर्भर है. मैन्युफैक्चरिंग इकाइयां वहां हैं नहीं. सर्विस वह अमेरिका को देता है. इस कारण अमेरिकी माल वहां खूब आता है. दूसरे देशों से आने वाला माल भी वाया अमेरिका आता है. कनाडा की राजनीति भी अमेरिका से प्रभावित होती है. चूंकि कनाडा और अमेरिका में इस वक्त समान विचारधारा वाले लोगों का शासन है इसलिए कनाडा के प्रधानमंत्री अमेरिकी राष्ट्रपति की कोई बात नहीं टाल सकते.
डिवाइड एंड रूल की पॉलिसी
अगर यूक्रेन युद्ध के समय कनाडा अमेरिका की हर बात न मानता तो जस्टिन ट्रूडो इतने लाचार न होते. सच यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन बड़े खिलाड़ी हैं. खुद कनाडा के लोग मान रहे हैं कि ट्रूडो ने अमेरिकी इशारे पर भारत के विरुद्ध भड़काऊ बयान दिया. टोरंटो के समीप Brampton में रह रहे पत्रकार राकेश तिवारी का कहना है, कि उनकी समझ में डिवाइड और रूल करने के पुराने सिद्धांत को फॉलो करते हुए कैनेडियन प्रधानमंत्री ने एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश की है. जिसमें एक ही वार में कैनेडियन्स के स्वाभिमान की रक्षा करने वाले स्वयंभू मसीहा का वे मुकुट पहन लें और 2025 में होने वाले फ़ेडरल चुनाव में वे जीत भी पक्की कर लें.
अपने प्रमुख दावेदार कंजरवेटिव नेता को भारत और मोदी के नजदीकी बताते हुए अपने से कम राष्ट्रभक्त दिखाने की कोशिश भी उन्होंने इसी बहाने की. NDP नेता जगमीत सिंह से उनका सिख वोट बैंक छीनना, चीन और भारत विरोधी ताकतों के साथ खड़ा होना तथा 2025 के चुनावों में कनाडा की संप्रभुता, सुरक्षा और अस्मिता के नाम पर अपने राजनैतिक विरोधियों को परास्त कर पाने की यह एक कोशिश है.
भारत के मामलों में दखलंदाजी
जस्टिन ट्रूडो सरकार ने 2020-21 भारत में हुए किसान आंदोलन के दौरान मोदी सरकार के खिलाफ और और किसान आंदोलन के पक्ष में अनेक बयान दिए. यह एक तरह से किसी और देश के अंदरूनी मामलों में दखल था. पाकिस्तान के बाद सिर्फ कनाडा ही ऐसा एक राष्ट्र रहा, जिसने भारत की संप्रभुता को अस्वीकार करते हुए उसके आंतरिक मामलों में इस तरह घुसपैठ की. तथा भारत सरकार द्वारा घोषित खालिस्तानी आतंकवादियों को कनाडा ने अपने यहां खुलकर जगह दी और सपोर्ट किया. भारत सरकार का मानना है कि कनाडा ने भारत में पंजाब राज्य के चुनावों में भी हस्तक्षेप किया है. खालिस्तानियों को भारत में सत्तारूढ़ दल भाजपा और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस दोनों ही नापसंद करते हैं. खालिस्तानियों के निशाने पर भी मोदी सरकार और मुख्य विपक्षी कांग्रेस के भी नेता हैं.
पन्नू की धमकी एक सांसद को भी
मालूम हो कि SFJ (सिक्ख फ़ोर जस्टिस) के नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू ने कनाडा से सभी हिंदुओं को निकल जाने की धमकी भी दी. यहां तक कि लिबरल पार्टी के सांसद चंद्रा आर्य भी उनके निशाने पर हैं. कनाडा के तमाम हिंदू मंदिरों पर खुलेआम खालिस्तानी समर्थकों ने हिंदू, भारत और मोदी विरोधी धमकियों के साथ खालिस्तान ज़िंदाबाद के नारे भी लिखे. जिसका कभी कोई संज्ञान जस्टिन ट्रूडो सरकार ने नहीं लिया जबकि स्थानीय मेयरों और विधायकों (MPP) तथा सांसदों (MP) ने हिंदू फ़ोबिया के विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद की. मिसीसागा के राम मंदिर पर हिंदू विरोधी और ख़ालिस्तान समर्थक नारों को मिटाने के लिए वर्ष 2023 में मिसीसागा के तब के मेयर और पूर्व लिबरल केंद्रीय मंत्री बोनी क्रेंबी ने अपने हाथों से ये नारे मिटाये थे.
खुद पर संकट आया तो नानी याद आई!
जबकि यही जस्टिन ट्रूडो हैं, जिन्होंने ट्रकर्स की हड़ताल के दौरान यही भारत में किसान आंदोलन का द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार वॉर मेजर्स एक्ट लागू किया और फ़्रीडम कोनवाय के आंदोलन को बुरी तरह कुचला. प्रधानमंत्री ट्रूडो अपनी आलोकप्रियता की उच्चतम सीमा पर हैं. कनाडा में हुए तमाम मीडिया सर्वेक्षणों और राजनैतिक पंडितों के अनुसार अगर आज चुनाव होते हैं तो कंजरवेटिव पार्टी के नेता पिएर पोलिव्रे अपार बहुमत से जीतेंगे और शायद जगमीत सिंह भी अपनी पार्टी NDP को सँभाल ले जाएं. यहां तक कि क्यूबेक के अलगाववादी दल ब्लॉक क्युबेक्वा भी ट्रूडो के मुकाबले बेहतर स्थिति में है. यूं भी पिछले महीनों में हुए उपचुनावों में लिबरल पार्टी को हर जगह हार मिली. इसलिए बेचारे ट्रूडो अंट-शंट बयान दे रहे हैं. वह तो कनाडा की जनता है, जो उनको सबक सिखा रही है.
भारत को कहना चाहिए- Thanks to people of Canada!
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सौजन्य से टीवी9 हिंदी डॉट कॉम
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