दुनियां – COP29: दुनिया की भलाई के लिए चंदा देने पर क्यों कंजूसी दिखा रहे हैं अमीर देश? – #INA
क्या दुनिया जलवायु परिवर्तन की मार झेलने के लिए तैयार है? शायद नहीं. और इसके सबसे बड़े सबूत हैं वो गरीब देश, जो जलवायु आपदाओं का सबसे ज्यादा सामना कर रहे हैं. मगर मदद के नाम पर उन्हें जो मिल रहा है, वह उनकी जरूरतों से कोसों दूर है.
अजरबैजान की राजधानी बाकू में हुए COP29 सम्मेलन में यही चिंता गहराई, जहां जलवायु वित्त (क्लाइमेट फाइनेंस) को लेकर अमीर देशों की कंजूसी पर सवाल उठे. ज़रूरत है 1.3 ट्रिलियन डॉलर की, लेकिन वादा सिर्फ 300 बिलियन डॉलर का, वो भी 2035 से. जलवायु संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं देशों का कहना है कि यह रकम न केवल कम है बल्कि अपमानजनक भी है.
आइए समझते हैं कि आखिर क्लाइमेट चेंज से निपटने के लिए जरूरतमंद देश कितने पैसे की मांग कर रहे हैं और क्यों अमीर देश जैसे अमेरिका, चीन पैसे देने में कंजूसी कर रहे हैं?
भारत ने खारिज किया पैकेज, मिला इन देशों का साथ
भारत ने भी इस क्लाइमेट फाइनेंस पैकेज को खारिज कर दिया है. भारत ने इस रकम को विकासशील देशों की जरूरतों के मुकाबले काफी कम बताया. भारतीय डेलिगेशन की तरफ से चांदनी रैना ने कहा कि ”हम इससे काफी निराश हैं, ये साफ तौर दिखाता है कि विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के इच्छुक नहीं है. हमें यह कहते हुए खेद है कि यह दस्तावेज महज नजरों का धोखा है.”
इस मुद्दे पर नाइजीरिया, मलावी और बोलीविया ने भी भारत का समर्थन किया. नाइजीरिया ने तो इसे एक मजाक बताया.
सिएरा लियोन के पर्यावरण मंत्री जिवोह अब्दुलई ने इसे अमीर देशों की “अच्छी नीयत की कमी” बताया.
दोहरी मार झेलते विकासशील देश
वैसा देखा जाए तो ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में जिन देशों का सबसे ज्यादा हाथ रहा है, उन्हें ही इससे निपटने में सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए. जैसे अमेरिका और चीन दुनिया के सबसे बड़े ग्रीनहाउस उत्सर्जक है.
इसलिए विकासशील देश लंबे समय से ही जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले उस नुकसान और क्षति की भरपाई के लिए उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की तरफ से पैसों की मांग करते रहे हैं.
इस बार के कॉप29 बैठक का एजेंडा ही क्लाइमेट फाइनेंस पर था. इसे फाइनेंस कॉप तक कहा गया. क्लाइमेट फाइनेंस का मतलब वह पैसा है जो बड़ी अर्थव्यवस्थाएं गरीब देशों को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए, जलवायु परिवर्तन के कारण बिगड़ते चरम मौसम से निपटने में मदद करने के लिए देती है.
मगर अमेरिका और यूरोपीय संघ ने कहा है कि आज के जियोपॉलिटिक्स और आर्थिक समस्याओं को देखते हुए इससे ज्यादा रकम संभव नहीं है.
कहां फंसा पेंच?
साल 2009 में अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान, ब्रिटेन, कनाडा, स्विट्जरलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देश 2020 से 2025 तक सालाना 100 अरब डॉलर देने को राजी हो गए थे. मगर ये पहली बार सिर्फ 2022 में ही शुरू हो पाया.
इस देरी से विकासशील और गरीब देशों के बीच ये संदेश गया कि अमीर देश अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहे हैं. इस बार हुए COP29 बैठक में ये उम्मीद की जा रही थी सम्मेलन में शामिल होने वाले करीब 200 देश साल 2025 के आगे के वर्षों के लिए एक नए वित्तीय लक्ष्य पर सहमत हो जाएंगे.
तो उस लिहाज से देखा जाए तो 300 बिलियन डॉलर की पेशकश तीन गुना ज्यादा ही है लेकिन ट्रिलियन-डॉलर के आंकड़े से काफी कम है, जिस पर विकासशील देश जोर दे रहे थे.
दरअसल संयुक्त राष्ट्र की 2023 की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2030 तक विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचाने के लिए हर साल 2.4 ट्रिलियन डॉलर निवेश की जरूरत है. इसमें भी कुछ देशों ने अपनी जरूरतों के हिसाब से मांगे रखी थी.
मसलन अरब ग्रुप के देश जिसमें सऊदी अरब, यूएई, इजिप्ट शामिल है. उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को प्रति वर्ष 1.1 ट्रिलियन डॉलर का लक्ष्य सुझाया था जिसमें 441 बिलियन डॉलर सीधे विकसित देशों की सरकारों से डोनेशन के रूप में आते हैं. भारत, अफ़्रीकी देशों और छोटे द्वीप देशों ने भी कहा है कि प्रति वर्ष 1 ट्रिलियन डॉलर से अधिक जुटाया जाना चाहिए.
अमीर देशों का क्या कहना है?
फिलहाल सिर्फ कुछ दर्जन देश ही क्लाइमेट फाइनेंस मुहैया कराने के लिए बाध्य हैं. पैसे देने वाले देशों की लिस्ट 1992 में संयुक्त राष्ट्रप जलवायु वार्ता के दौरान ही तय की गई थी. तब से इसमें कोई बदलाव नहीं किया गया है.
यूरोपीय संघ और अमेरिका कहना है कि यह लिस्ट काफी पुरानी हो चुकी है. इसलिए इसमें और दान देने वाले देशों को शामिल करना चाहिए. जिनमें दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन और कतर, सिंगापुर और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश शामिल है.
बीजिंग ने इसका कड़ा विरोध किया है. चीन का कहना है कि अमेरिका और अन्य औद्योगिक देशों को जलवायु के लिए सबसे पहले और सबसे तेज कदम उठाने चाहिए. दरअसल यूनाइटेड नेशन्स अभी भी चीन को विकासशील देश की श्रेणी में रखता है. जिसका मतलब है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करने या गरीब देशों को वित्तीय सहायता देने का उसका कोई औपचारिक दायित्व नहीं है.
दुनियाभर की सरकारों को लिखी गई चिट्ठी
2024 के अक्टूबर महीने में ही कई एनवायरमेंट ऐक्टिविस्ट, पर्यावरण और विज्ञान संगठनों ने मिलकर दुनियाभर की सरकारों को एक चिट्ठी लिखी थी. इसमें मांग की गई कि अमीर देश, विकासशील देशों को हर साल तीन कैटिगरी में 1,000 अरब डॉलर दें.
इसमें से करीब 300 अरब डॉलर उत्सर्जन को कम करने के मद में सरकारी पैसे की मांग थी. वहीं 300 अरब डॉलर का फंड जलवायु परिवर्तन के मुताबिक नीतियां बनाने और करीब 400 अरब डॉलर आपदा राहत के लिए देने की बात थी. इस एक आखिरी कैटिगरी को ‘घाटा और नुकसान’ (लॉस एंड डैमेज) भी कहा जाता है.
इस चिट्टी में मांग की गई थी कि यह सारी राशि अनुदान की शक्ल में हो, ना कि कर्ज के रूप में. विकसित देश नहीं चाहते हैं कि COP29 में जो भी संधि हो, उसमें ‘घाटा और नुकसान’ के लिए कुछ भी शामिल किया जाए. इसलिए जब 300 बिलियन डॉलर की पेशकश की गई तो गरीब देशों ने इस बात की आलोचना की कि यह रकम कर्ज के तौर पर आएगी, न कि अनुदान के रूप में.
अब COP30 का इंतजार
कई विशेषज्ञों ने कहा कि जलवायु वित्त के लिए बहुपक्षीय बैंक सबसे अच्छे साधन हो सकते हैं. बहुपक्षीय बैंक को अंग्रेज़ी में ‘Multilateral Development Bank’ (MDB) कहते हैं. ये वित्तीय संस्थान होते हैं जो विकासशील देशों को आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए ऋण, अनुदान, और तकनीकी मदद देते हैं.
इन बैंकों के मालिक राष्ट्रीय सरकारें और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संगठन होते हैं. विश्व बैंक और एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक जैसे संस्थानों से 120 अरब डॉलर सालाना जुटाने की उम्मीद है. उम्मीद जताई जा रही है ब्राजील में अगले साल होने वाले COP30 में इसे लेकर एक सकारात्मक हल निकले.
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सौजन्य से टीवी9 हिंदी डॉट कॉम
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