Political – संन्यास की राजनीति… शरद पवार ने कैसे खेला इमोशनल कार्ड?- #INA
भारतीय राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले कद्दावर नेता शरद पवार ने यह कह कर सबको चौंका दिया है, कि अब वे कोई चुनाव नहीं लड़ेंगे. भारत में संसदीय राजनीति के वे पुरोधा हैं और 1967 से लगातार चुनाव जीतते आ रहे हैं. हर संकट में वे संकट मोचक बन जाते हैं. समय की धारा और बदलाव को खूब समझते हैं. वे इमोशनल कार्ड भी खेलते हैं और कभी-कभी एक ऐसी कठोर लाइन खींच देते हैं, जिसे पार करना मुश्किल होता है.
महाराष्ट्र में बारामती विधानसभा सीट में पोते (भतीजे के बेटे) युगेंद्र पवार के पक्ष में प्रचार करते हुए उन्होंने मंगलवार को चुनावी राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी. हालांकि इसके पहले उन्होंने NCP प्रत्याशी अजित पवार के काम की तारीफ भी की. मालूम हो कि अजित पवार भी उनके भतीजे हैं पर पिछले साल नाराज होते उन्होंनेपार्टी तोड़ दी और अधिकांश विधायकों को अपने साथ ले गए.
अजित के विरुद्ध एक शब्द नहीं बोले
लेकिन बुजुर्ग राजनेता शरद भाऊ की यही खूबी है, कि उन्होंने अपनी स्पीच में भतीजे अजित के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा परंतु अपने हाव-भाव से जता दिया कि अब वे युगेंद्र के साथ हैं. युगेंद्र को जिताने के लिए आइंदा चुनाव न लड़ने का उन्होंने इमोशनल दांव भी चल दिया. बारामती शरद पवार की पारिवारिक सीट है. तीस वर्ष तक उन्होंने इस सीट का प्रतिनिधित्व किया. इसके बाद से उनके भतीजे अजित वहां से लगातार विधायक चुने जाते रहे.
बीच में जब शरद पवार का राजनीतिक उत्तरदायित्व उनकी बेटी सुप्रिया सुले संभालने लगीं तो भतीजे अजित पवार को लग गया था, कि उन्हें अब अधिक उम्मीद नहीं करनी चाहिए. इसलिए अजित ने 2023 में NCP को तोड़ने के पहले भी एक-दो बार शरद के खेमे से निकलने की कोशिश की पर नाकाम रहे. या तो अधिक विधायक नहीं जुटा पाए या फिर हार का डर सताता रहा.
शरद भी झटका देते रहे
जुलाई 2023 में NCP के विधायकों को लेकर अजित पवार बीजेपी खेमे आ गए. उन्हें महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे सरकार में उप मुख्यमंत्री का पद मिला. चाचा के खिलाफ उनकी यह बगावत शरद पवार के लिए झटका देने वाली थी. अजित पवार इतने विधायकों को अपने साथ ले गए कि शरद पवार खुद अपनी पार्टी का नेतृत्व गंवा बैठे. उनके हिस्से में जो NCP आई, उसे NCP-SP का नाम मिला. लेकिन शरद पवार की खुद की राजनीति भी सदैव इसी तरह चली आई थी. कब वे किसे झटका दे देंगे, यह कोई नहीं सोच सकता था. अपनी इसी कला के चलते वे न सिर्फ़ महाराष्ट्र में बल्कि पूरे देश में सदैव खबरों में रहे. जब भी गठबंधन की सरकारें बनीं बिना शरद पवार की सक्रिय भूमिका के उन सरकारों पर संकट के बादल मंडराया ही करते थे. शरद पवार हर संकट का हल तलाश ही लेते थे.
अजित को अब बारामती जीतना आसान नहीं रहा
ऐसा दिग्गज राजनेता यदि अपने गढ़ में जा कर चुनावी राजनीति से संन्यास की घोषणा करे तो यकीनन यह उसका एक ऐसा कार्ड होगा, जिसकी काट मुश्किल होगी. मजे की बात जिस भतीजे ने उन्हें गच्चा दिया, उसकी निंदा उन्होंने बारामती में नहीं की, उलटे उसके काम की तारीफ की. अजित पवार की निंदा तो शरद पवार के चेले चपाटी कर रहे हैं. उन्होंने तो बस यह संकेत दे दिया कि अब नए लोगों को मौका मिलना चाहिए.
अजित पवार उनके बड़े भाई के बेटे हैं और उनकी पार्टी NCP-SP से लड़ रहे युगेंद्र पवार एक दूसरे भाई के पोते. संकेत साफ था कि अब दूसरी नहीं तीसरी पीढ़ी को जिताओ, तभी कुछ काम होगा. उनकी यह इमोशनल स्पीच निश्चित तौर पर अजित पवार के लिए झटका होगा. यानी अजित ने जो गत वर्ष जुलाई में किया था, वही उन्हें मतदान के दो हफ्ते पहले मिला. अजित पवार के लिए बारामती की वैतरणी पार करनी अब आसान तो नहीं रही.
राजनीति में संतान प्रेम
महाराष्ट्र की राजनीति में संतान-प्रेम से कई राजनीतिक दलों को झटका पहुंचा है. शिव सेना में पहली बगावत तब हुई जब इसके संस्थापक बाल ठाकरे ने अपना उत्तराधिकारी अपने बेटे उद्धव ठाकरे को चुना और भतीजे राज ठाकरे को भुला दिया. जबकि पहले सदैव उनके कंधे से कंधा मिला कर यह भतीजा ही लड़ता रहा था. यही हाल शरद पवार की NCP का हुआ.
उन्होंने अपनी बेटी के प्रेम में भतीजे अजित पवार को पीछे किया. राजनीति के सारे अध्याय धृतराष्ट्र जैसे राजाओं के संतान-प्रेम से भरे हैं. भले राजनीति में भाई-भतीजावाद की कहावतें कही जाती हों पर सच्चाई के पन्ने पुत्र या पुत्रीवाद से भरे हैं. सारे नेताओं की राजनीति को झटका इसी संतान प्रेम से मिला है. एक जमाना वह था, जब शरद पवार ने कांग्रेस पार्टी के प्रति वफ़ादारी के चलते अपने ही बड़े भाई के विरुद्ध चुनाव प्रचार किया था.
शरद पवार ने कांग्रेस को गच्चा दिया था
ध्यान रखना चाहिए कि इन्हीं शरद पवार ने कांग्रेस को तोड़ कर अपने समर्थकों के साथ अलग पार्टी NCP बनाई थी. पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ 1999 में उन्होंने कांग्रेस इसलिए छोड़ी क्योंकि वे सोनिया गांधी के विदेशी मूल का होने के कारण उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के विरोधी थे. उनका आग्रह था कि सोनिया गांधी की बजाय किसी और को प्रधानमंत्री का पद सौंपा जाना चाहिए.
1999 के चुनाव में भाजपा नीत एनडीए और कांग्रेस गठबंधन दलों की सीटों के बीच कोई भारी अंतर नहीं था. पर ये तीनों नेता चाहते थे कि किसी भारतीय मूल के व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाया जाए. इसीलिए इन तीनों ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी. हालांकि 2004 में NCP ने कांग्रेस नीत UPA को सपोर्ट किया और शरद पवार मनमोहन सिंह सरकार में कृषि मंत्री बनाए गए.
चुनाव या राजनीति से संन्यास, यह साफ नहीं
महाराष्ट्र के चार बार मुख्यमंत्री रहे तथा दो बार केंद्रीय मंत्री रहे शरद पवार राजनीति के सदैव अग्रिम पंक्ति के खिलाड़ी रहे. वे केंद्र में रक्षा और कृषि मंत्रालयों को संभाला. 1960 में कांग्रेस में आए और 1967 में बारामती से विधायक चुने गए. इसके बाद शरद पवार ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. 1990 तक वे इसी विधानसभा सीट से लगातार जीतते रहे. महाराष्ट्र में मराठा क्षत्रपों में चव्हाण और बसंत राव नाईक के बाद उनका नंबर आता है.
महाराष्ट्र में सहकारिता संघ से राजनीति शुरू करने वाले इस 84 वर्षीय मराठा क्षत्रप का मंगलवार को दिया गया भाषण मतदाताओं से एक भावुक अपील जैसा था. ऐसा लगा मानों वे कह रहे हों बस आखिरी बार उनके अनुरोध पर उनके पोते को जीता दो. यद्यपि उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि वे राजनीति छोड़ेंगे या सिर्फ चुनाव लड़ना.
पहली बार शरद पवार कमजोर दिखे
मालूम हो कि इस समय शरद पवार राज्यसभा में हैं. बारामती लोकसभा सीट से उनकी बेटी सुप्रिया सुले चुनी गई है. सुप्रिया 2009 से लगातार इस सीट से चुनी जाती रही हैं. उसके पहले उनके पिता इस सीट से लोकसभा में थे. बारामती विधानसभा सीट से उनके भतीजे अजित पवार विधायक हैं. जुलाई 2023 तक वे चाचा शरद पवार के ख़ास थे. एक तरह से यह सीट पवार परिवार की अपनी पारिवारिक सीट है.
कहा जाता है कि इस सीट से शरद पवार जिसे चाहें उसे खड़ा कर दें, जीत ही जाएगा. लेकिन इस बार इस तरह की भावुक अपील यह संकेत देती है कि पहली बार यह मराठा क्षत्रप अपनी ही परंपरागत सीट पर खुद को कमजोर महसूस कर रहा है. क्योंकि इस बार उनका प्रतिद्वंदी कोई और नहीं उनका ही भतीजा है. वैसे यहां से कोई भी जीते सीट पवार परिवार के पास ही रहेगी!
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