देश – यूक्रेन ने खाली कर दिया था अपने परमाणु हथियारों का जखीरा, क्या आज चुका रहा है उसकी कीमत? – #INA
Ukraine Russia War: एक समय सोवियत यूनियन का हिस्सा रहे दोनों देश, यूक्रेन और रूस के बीच इस समय भयंकर जंग जारी है। हजारों की संख्या में सैनिक दोनों ही तरफ से मारे जा चुके हैं। दुनिया के सभी देश इस युद्ध को खत्म करवाने के लिए अपना-अपना योगदान दे रहे हैं। रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया है क्योंकि वह नहीं चाहता था कि यूक्रेन नाटो में शामिल हो, लेकिन एक समय था, जब यूक्रेन को अपनी सुरक्षा के लिए नाटो में शामिल होने की जरूरत ही नहीं थी। वह खुद ही अपनी रक्षा करने में सक्षम होता। अगर आज यूक्रेन के पास परमाणु हथियार होते तो शायद ही रूस उस पर आक्रमण करने के बारे में सोचता।
1991 में सोवियत यूनियन के पतन के बाद मॉस्को द्वारा हजारों परमाणु हथियार यूक्रेनी धरती पर छोड़ दिए गए। कई दस्तावेजों में इनकी संख्या 2 हजार के आसपास बताई जाती है, मतलब आज जितने हथियार भारत के पास है उससे करीब दस गुना ज्यादा परमाणु हथियार यूक्रेन के पास थे। यह वही समय था जब पश्चिमी देश नहीं चाहते थे किसी और देश के पास भी यह हथियार हो।इसलिए अमेरिका समेत बाकी देशों ने यूक्रेन पर दवाब डाला और उसे अपने पक्ष में करने की कोशिश की।
अमेरिका ने की सलाह पर छोड़े परमाणु हथियार
1991 के बाद कुछ वर्षों तक यह परमाणु हथियार यूक्रेन की ताकत बने रहे लेकिन पश्चिमी देश नहीं चाहते थे किसी और देश के पास भी यह हथियार हो। तो उनकी सलाह मानकर यूक्रेन ने पूरी तरह से परमाणु हथियारों को त्यागने का निर्णय ले लिया। इसके बदले में अमेरिका, ब्रिट्रेन और रूस ने 1994 के बुड़ापेस्ट मेमोरेंडम में यूक्रेन की सुरक्षा करने की गारंटी दी।
नेशनल पब्लिक रेडियो में छपे एक इंटरव्यू के मुताबिक, इस समझौते पर हस्ताक्षर करते समय यूक्रेन को यह पता था कि इस डील में उन्हें कानूनी रूप से कोई बड़ी गारंटी नहीं मिल रही है, जो कि उन्होंने मांगी थी। लेकिन एक हाल ही आजाद हुए देश के सामने इतने बड़े परमाणु हथियारों के जखीरे को संभालना बड़ी चुनौती थी। पश्चिमी देशों और रूस की तरफ से उन्हें यह आश्वासन दिया था कि वह अपनी इस गारंटी को वास्तव में गंभीरता से लेंगे। वह किसी भी हमले कि स्थिति में यूक्रेन को अकेला नहीं छोड़ेंगे।
इस समझौते के बाद यूक्रेन की सरकार अपनी जनता को यह समझाने में कामयाब रही की हमारे पास अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों की सुरक्षा गारंटी है, जो कि हमें सभी आगामी खतरों से बचाएंगे। अमेरिका के साथ-साथ इस समझौते में सोवियत संघ का सबसे बड़ा उत्तराधिकारी और नया देश रूस भी शामिल था। इसलिए यूक्रेन की जनता को इस डील में ज्यादा कोई समस्या लगी भी नहीं। जिस समय यह समझौता हुआ उस समय दुनिया में परमाणु हथियारों को लेकर यह माहौल था कि जिनके पास भी है केवल उन्हीं के पास यह रहना चाहिए। इसलिए यूक्रेन ने यह बात मान भी ली। 1998 में जब भारत ने परमाणु विस्फोट किया तो बाकी पश्चिमी देशों की तरह यूक्रेन ने भी भारत पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की और लगाए भी।
रूस का इस संधि को लेकर क्या है रुख
रिपोर्ट के अनुसार, इस संधि में यह था कि कभी अगर जरूरत पड़े तो यूक्रेन इसके सदस्य देशों की मीटिंग बुला सकता है। फरवरी 2014 में जब रूस ने क्रीमिया पर आक्रमण किया तो यूक्रेन ने यह मीटिंग बुलाई। पेरिस में हुई इस मीटिंग में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने, पेरिस में ही होने के बावजूद भी इस मीटिंग में हिस्सा लेने से मना कर दिया। इस मामले के सिलसिले में रूस ने तर्क दिया कि उसने इस नाजायज सरकार के साथ में में संधि नहीं की थी बल्कि एक अलग सरकार के साथ में संधि की थी।
1994 की परस्थितियों के हिसाब से यूक्रेन ने जो भी फैसला लिया हो उसको इस मामले के जानकार लोगों में अलग-अलग मत है। कुछ का कहना यह है कि उस समय के हिसाब से यूक्रेन का फैसला सही था क्योंकि संधि के हिसाब से यूक्रेन को दोनों ही तरफों से यह आश्वासन दिया गया था कि उस को सुरक्षा की कोई दिक्कत नहीं होगी। दूसरे धड़े का कहना है कि उस समय की यूक्रेन की सरकार ने पश्चिमी देशों और रूसी सरकार पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था। हालांकि अमेरिका के विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकेन से जब इस सिलसिले में सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हम उस समझौते का सम्मान करते हैं और यूक्रेन की सुरक्षा के लिए हम लगातार उसकी सहायता कर रहे हैं।
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