देश- उमर के सिर सत्ता का ताज, जम्मू में BJP को मिली हिंदुत्व की धार, कश्मीर में अलगाववादियों का सूपड़ा साफ- #NA

पीएम मोदी, उमर अब्दुल्ला और इंजीनियर राशिद

जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन 15 साल बाद सरकार बनाने जा रहा है. उमर अब्दुल्ला के सिर एक बार फिर सत्ता का ताज सजने जा रहा है. जम्मू-कश्मीर में भले ही बीजेपी सरकार बनाने से महरूम रह गई हो, लेकिन जिस तरह जम्मू संभाग में अजय रही है. इस तरह बीजेपी के हिंदुत्व और राष्ट्रवादी राजनीति की सियासी धार कुंद नहीं पड़ी है, लेकिन घाटी में उतरे अलगाववादियों का सुपड़ा साफ हो गया है. कश्मीर की जनता ने अलगाववादियों को पूरी तरह से नकार दिया है.

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्त होने के बाद विधानसभा चुनाव में कई ऐसे चेहरे मैदान में उतरे थे, जो पहले कभी अलगाववाद से जुड़े हुए थे या अलगाववादी विचारधारा रखते थे. जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठन ने चुनाव बहिष्कार की अपनी रणनीति को दरकिनार कर मुख्यधारा में कदम रखने का फैसला किया था. 2024 के विधानसभा चुनाव में करीब 30 अलगाववादी और जमात-ए-इस्लामी से जुड़े नेता चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे थे, लेकिन एक भी अलगाववादी नेता चुनाव नहीं जीत सके.इस तरह जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजों ने सियासी संदेश दे दिया है.

उमर अब्दुल्ला के सिर सता सत्ता का ताज

दस साल बाद जम्मू-कश्मीर में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में रहे. नेशनल कॉन्फ्रेंस 42 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी है और सहयोगी पार्टी कांग्रेस को 6 सीटें मिली हैं. बीजेपी 29 सीटें जीतने में कामयाब रही. इस तरह से कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन ने पूर्ण बहुमत के
साथ सत्ता में वापसी की है. नेशनल कॉन्फ्रेंस को ज्यादातर सीटें कश्मीर घाटी में मिली हैं, जिसके साफ जाहिर है कि मुस्लिम समुदाय ने नेशनल कॉन्फ्रेंस को एकतरफा वोट दिए. बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चलाने का खामियाजा पीडीपी को भुगतना पड़ा है. 2014 में जीते 28 सीटों से घटकर पीडीपी सिर्फ तीन सीटें कुपवाड़ा, पुलवामा और त्राल में सीमित होकर रह गई. पीडीपी की प्रमुख महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती और वरिष्ठ नेता महबूब बेग चुनाव हार गए. ऐसे में उमर अब्दुल्ला एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं.

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जम्मू में बीजेपी को मिली हिंदुत्व की धार

कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस का दबदबा रहा तो जम्मू इलाके में बीजेपी का वर्चस्व दिखा. जम्मू-कश्मीर में बीजेपी के हाथ सत्ता की चाबी भले ही न लगी हो, लेकिन यह साफ हो गया कि उसके हिंदुत्व और राष्ट्रवादी राजनीति की धार कुंद नहीं पड़ी है. जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए के खात्मे के बाद बीजेपी ने जम्मू के रीजन में अपना दबदबा बनाए रखा और फिर अजय रही है. जम्मू-कश्मीर में 60 सीटें मुस्लिम बहुल और 30 सीटें हिंदू बहुल है. हिंदू बहुल 30 सीटों में से बीजेपी 26 सीटें जीतने में कामयाब रही और तीन सीटें मुस्लिम इलाकों से जीती हैं. जम्मू-कश्मीर में बीजेपी के 2014 के चुनाव के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन से न सिर्फ पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ेगा बल्कि आक्रमक भी नजर आएगी.

उपराज्यपाल हैं पावरफुल

उमर अब्दुल्ला भले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भले ही विराजमान हो जाएं, लेकिन केंद्र शासित प्रदेश होने के चलते उपराज्यपाल पॉवरफुल है. ऐसे में सीएम से कहीं ज्यादा राजभवन की तूती बोलेगी. ऐसे में बीजेपी भविष्य में कश्मीर घाटी की राजनीति के करवट लेने पर पार्टी वहां चमत्कार करने की स्थिति में रहेगी. सीएम बनकर भी उमर अब्दुल्ला न ही अनुच्छेद 370 को बहाल कर पाएंगे और न ही पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की स्थिति में होंगे. यह दोनों ही फैसले केंद्र के द्वारा होने हैं. ऐसे में बीजेपी मुख्य विपक्षी दल के तौर पर जम्मू-कश्मीर की सियासत में काफी अहम भूमिका में रहेगी.

अलगाववादियों को जनता ने नकारा

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के समाप्ति के बाद अलगाववादियों ने भी मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने के लिए विधानसभा चुनाव में उतरे थे. कश्मीर घाटी में जमात-ए-इस्लामी और उसके जुड़े समर्थित उम्मीदवार मैदान में अपनी किस्मत आजमाने उतरे थे. कश्मीर की जनता ने अलगाववादियों को पूरी तरह से नकार दिया है. इतना ही नहीं सांसद इंजीनियर राशिद की पार्टी का भी सूपड़ा साफ हो गया है. अलगावादियों में कुलगाम में सैयार रेशी, जैनापुरा में एजाज अहमद मीर, पुलवामा में डॉ तलत मजीद, बारामूला में अब्दुल रेहमान शाला , सोपोरो में मंजूर कलू और लंगेट से कलीमुल्ला लोन चुनाव हार गए हैं.

एजाज गुरु को मिली करारी हार

संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु के भाई एजाज गुरु को सोपोर में करारी मात खानी पड़ी है. एजाज गुरु को 129 वोट मिले हैं, जो नोटा से भी कम है. इस तरह
इंजीनियर राशीद के भाई और एआईपी प्रत्याशी खुर्शीद अहमद से हार गए. सरजान बरकाती बीरवाह-गांदरबल से लड़े पर जीत नहीं पाए और उन्हें सिर्फ 418 वोट
मिले हैं. इंजीनियर राशीद की अवामी इत्तेहाद पार्टी ने विधानसभा चुनाव में 44 उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से कई की जमानत जब्त हो गई है. इंजीनियर राशिद के करीबी सहयोगी और प्रमुख व्यवसायी शेख आशिक हुसैन को केवल 963 वोट मिले, जो नोटा से कम है. नोटा को 1,713 वोट मिले.

किस पर है जनता को भरोसा

जम्मू-कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी ने अपने चार उम्मीदवार उतारे थे और चार अन्य का समर्थन किया था, लेकिन रेशी के अलावा, सभी अपनी जमानत राशि गंवा बैठे. जेकेएलएफ के पूर्व कमांडर मोहम्मद फारूक खान, जिन्हें सैफुल्लाह के नाम से भी जाना जाता है, हब्बाकदल निर्वाचन क्षेत्र से सपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और एनसी के शमीम फिरदौस से हार गए. इस तरह घाटी के लोगों ने अलगावादियों को नकार कर बड़ा सियासी संदेश दिया है. इससे यह बात साफ जाहिर है कि बदले हुए जम्मू-कश्मीर में लोगों का भरोसा मुख्यधारा की राजनीतिक दलों से साथ है.

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