खबर फिली – I Want To Talk Review : जैसे अभिषेक बच्चन में इरफान खान उतर आए हों…दुख भी सुंदर हो सकते हैं – #iNA @INA

अभिषेक बच्चन ने अपनी एक लाइन सेट कर ली है. उन्हें पता है कि बहुत बड़ी कमर्शियल फिल्म में काम करना उनके लिए कुछ खास फायदेमंद है नहीं. उनको लीड में लेकर आजकल के दौर में कोई मसाला फिल्म बनाएगा नहीं. इसलिए उन्होंने ऐसे सिनेमा का सहारा लिया है, जिसकी लाइब्रेरी में वैल्यू हो. इसमें वो अच्छा कर भी रहे हैं. बीते दिनों आई उनकी फिल्म ‘घूमर’ इसी का नमूना है. अब उनकी एक और फिल्म आई है. इसका नाम है I Want To Talk. ये ‘पीकू’ और ‘अक्टूबर’ जैसी जीवन से जुड़ी फिल्में बनाने वाले शूजीत सरकार की पिक्चर है, इसलिए इस फिल्म से उम्मीदें भी थीं.

ऐसी फिल्मों के साथ थिएटर में सो जाने का खतरा बराबर बना रहता है. काहे कि लोग आजकल इस तरह की रियलिस्टिक फिल्में थिएटर में जाकर देखना पसंद नहीं करते हैं. उन्हें बड़े स्टार्स की कमर्शियल फिल्मों के लिए एक्स्ट्रा पैसे खर्च करना पसंद है, लेकिन I Want To Talk को वो OTT पर देखना पसंद करते हैं. बहरहाल, ‘आई वॉन्ट टू टॉक’ ऐसी फिल्म है, जो आपको जगाए रखती है. आपके अंदर सोए हुए इंसान को भी जगाने की कोशिश करती है. प्रेम करना सिखाती है. दुख दिखाती है. हंसाती भी है. साथ ही जीवन की असलियत पर्दे पर पेश करने की कोशिश करती है.

कैंसर भी फिल्म का एक किरदार है

अभिषेक बच्चन फिल्म में मार्केटिंग वाले बंदे हैं. वो इंडिया से अमेरिका आकर बस गया है. उसका नाम होता है अर्जुन. एक दिन अर्जुन को पता चलता है कि उसे कैंसर है. और ऐसा-वैसा कैंसर नहीं ,ये उसके कई ऑर्गन में फैल चुका है. डॉक्टर उसे सिर्फ सौ दिन का समय देते हैं. लेकिन अर्जुन हार नहीं मानता. उसे जीना है. तमाम सर्जरी होती हैं. यहां तक कि उसका 95 परसेंट स्टमक निकाल दिया जाता है. एक तरफ उसे कैंसर है और दूसरी तरफ उसका तलाक हो गया है. उसकी बेटी रिया अल्टरनेट डेज पर उसके पास रहने आती है. एक समय पर उसका जीवन ऐसा हो जाता है कि वो अपने मरने का मुहूर्त निकालता है.

बाबा ये मरना क्या होता है!

फिल्म सिर्फ कैंसर सर्वाइवर की कहानी नहीं है. बल्कि उसके एक पिता होने की भी कहानी है. बेटी से उसके रिश्ते की मद्धम लौ है. सोचिए किसी की बेटी उससे पूछ रही हो कि बाबा ये मरना क्या होता है? क्या आप मर रहे हैं. उसका छिला हुआ सिर देखकर रिया कहती है – प्लीज मुझे स्कूल छोड़ते वक्त अपना सिर ढक लेंगे क्या! सुनकर ही दुख होता है, महसूस करने वाले पर न जाने क्या बीतती होगी!

शानदार स्क्रीनप्ले – तगड़ा ट्रीटमेंट

अब आपको लग रहा होगा कि हमने फिल्म की सारी कहानी, तो आपको बता दी. लेकिन अपन ने सिर्फ ट्रेलर जितना ही बताया है. बाक़ी फिल्म देखकर आपको पता चलेगा. बहरहाल, ये फिल्म स्टोरी के लिए नहीं, इसके स्क्रीनप्ले के लिए देखी जानी चाहिए. काहे कि स्टोरी तो सिंपल है. लेकिन इसका स्क्रीनप्ले जटिल है. रितेश शाह को इसके लिए पूरे नंबर मिलने चाहिए. लेकिन उनसे एक एक्स्ट्रा नंबर देना पड़ेगा शूजीत सरकार को, इस फिल्म के ट्रीटमेंट के लिए.

रबड़ी में स्वाद है

शूजीत सरकार की ये फिल्म धीमी आंच पर पक रहा दूध है. जो कुछ समय के बाद लाल हो जाता है और उससे एक सोंधा स्वाद आता है. अगर उसे आग पर और ज्यादा देर चढ़ा रहने दें, तो वो रबड़ी बन जाता है. बस उसमें कल्छी डालकर चलाते रहना होता है. शूजीत ने ऐसा ही किया है. वो कढ़ाई में कल्छी चलाते रहे, दूध गाढ़ा होता रहा. स्वाद बढ़ता रहा. पर ये प्रक्रिया धैर्य मांगती है. सिर्फ रबड़ी बनाने वाले के लिए नहीं, बल्कि जिसे रबड़ी खानी है, उसे भी धीरज धरना होगा. कई लोगों को लग सकता है कि ‘आई वांट टू टॉक’ एक स्लो फिल्म है. लेकिन जीवन भी स्लो ही घटित होता है. शूजीत की अक्टूबर यदि आपको पसंद आई थी, तो ये फिल्म भी पसंद आएगी. बस इसका सेकंड हाफ थोड़ा-सा एडिट किया जा सकता, तो और मजा आता. जीवन में आप कुछ एडिट नहीं कर सकते, लेकिन फिल्म में जंप कट मार सकते हैं.

साइलेंस की सुंदरता

जैसे एक पेपर पर हर जगह लिख दिया जाए, तो वो गंदा दिखता है. थोड़ा-थोड़ा व्हाइट स्पेस छोड़ना पड़ता है. उस व्हाइट स्पेस का लेखन की सुंदरता में बहुत महत्व है. ठीक ऐसे ही किसी फिल्म की सुंदरता में साइलेंस की बहुत इंपॉर्टेंस है. कुछ दिन पहले ‘कंगूवा’ देखी थी, उसमें इतना शोर था कि पास वाले की आवाज सुनना भी मुश्किल हो. ‘आई वॉन्ट टू टॉक’ एकदम विपरीत फिल्म है. जहां आप आदमी की सांसे भी सुन सकते हैं. आधी से ज्यादा फिल्म में कोई बैकग्राउंड म्यूजिक नहीं है. जैसे रियल लाइफ में होता है. कितनी सुंदर बात है ना. शूजीत ने इस फिल्म में नेचर को बतौर BGM कंपोजर हायर किया है.

अभिषेक बच्चन में इरफान खान दिखते हैं

अभिषेक बच्चन ने एक बार फिर साबित किया, वो बहुत अच्छे एक्टर हैं. उन्होंने अर्जुन की मनोदशा को बखूबी पर्दे पर उतारा है. हमें अर्जुन की बॉडी के साथ-साथ उसके मन में भी झांकने का मौका दिया है. उनकी इस रोल के लिए जितनी तारीफ की जाए कम है. काश वो अमिताभ बच्चन के बेटे न होते, तो उनको बॉलीवुड में और ज्यादा पहचान मिलती, वो बड़े वृक्ष की छाया में कहीं खो गए. मगर अभी वो खुद ही बड़े वृक्ष बनने की ओर आगे बढ़ रहे हैं. बीच में कहीं शूजीत को कहते हुए सुना था कि उन्होंने अभिषेक में इरफान के अक्स देखे. मुझे भी लगा जैसे अभिषेक बच्चन में इरफान खान उतर आए हों. खैर, अभिषेक की बेटी रिया बनी अहिल्या बामरु ने भी कमाल काम किया है. जैसे सब रियल हो, कोई एक्टिंग ही न की गई हो. जॉनी लीवर को देखकर अच्छा लगता है. कुलमिलाकर एक्टिंग सबने बहुत बढ़िया की है.

ये एक रियल लाइफ स्टोरी है. इसलिए पिक्चर भी रियलिटी के काफी करीब है. इसमें बहुत ज्यादा ड्रामा घोलने की कोशिश नहीं की गई है. यदि आपको स्लो बर्नर्स देखना पसंद है, तो ये फिल्म आपके लिए ही है. लपककर अपने नजदीकी सिनेमाघर में देख आइए. टिकट बुक करिए भाई, क्या कर रहे हैं!


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