Political – नकारने से स्वीकारने तक की कहानी है महाराष्ट्र में BJP की भव्य जीत- #INA

महाराष्ट्र में महायुति की ऐतिहासिक जीत

यह कहना एक सरलीकरण है कि जिस राज्य में जिसकी सरकार है, उस राज्य में उसी को जीत मिली. लेकिन फिर सवाल उठता है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को उस तरह सफलता क्यों नहीं मिली थी? महाराष्ट्र विधानसभा के आम चुनाव और उत्तर प्रदेश विधानसभा की 9 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे अलग कहानी कह रहे हैं. ये वो प्रदेश हैं, जहां अभी छह महीने पहले हुए संसदीय चुनाव में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी थी. लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपना परचम लहरा दिया. इसका सही जवाब पाने के लिए विश्लेषण करना होगा.
दरअसल. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और उसके गठबंधन को खासी सफलता मिली थी. इतनी अधिक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने सहयोगी दलों से झुक कर बात करनी पड़ी जबकि यह उनके स्वभाव में नहीं है. 2014 और 2019 की मोदी सरकार 2024 की मोदी सरकार से अलग थी.

हर सीट की हार का विश्लेषण

इसकी एक वजह तो यह रही कि भाजपा ने अपनी हार पर माथा-पच्ची की. मंथन हुआ कि किन मुद्दों पर भाजपा पिछड़ी. उनका यह काम स्वयं कांग्रेस ने आसान कर दिया. जीत के उछाह में कांग्रेस ने खुद अपनी रणनीति जाहिर कर दी. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी संविधान की प्रति लेकर बताने लगे कि संविधान बदलने के मुद्दे पर हमने भाजपा को घेर लिया था. दलित-पिछड़े मतदाता घबरा गए थे, कि भाजपा ने ऐसा कर दिया तो उनका आरक्षण समाप्त हो जाएगा. ऊपर से कांग्रेस के सबसे बड़े सहयोगी अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने पीडीए (PDA) को संगठित करने पर जोर दिया. पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक. यह जादू चल गया और लोकसभा में भाजपा 240 सीटों पर आकर अटक गई. 272 का आंकड़ा पाने के लिए उसे अपने सहयोगी दलों को साधे रखना पड़ रहा है. शुक्र है कि भाजपा के किसी सहयोगी दल ने अभी तक कोई तेवर नहीं दिखाए हैं और तालमेल बेहतर चल रहा है.

भाजपा ने वोटरों की नस को पकड़ा

भाजपा को मौका मिला कि वह इन भूलों को सुधारे क्योंकि फ्री राशन या किसान कल्याण निधि और राम मंदिर का उसे कोई लाभ नहीं मिला था. यहां तक कि भाजपा को अयोध्या सीट तक गंवानी पड़ी थी इसलिए उसने हवाई मुद्दों की बजाय जमीनी मुद्दे उठाए और यह सफल रही. हालांकि, इस बीच उसने हरियाणा विधानसभा चुनाव जीत लिया था. मगर वहां पर सामने सिर्फ कांग्रेस थी और कांग्रेस के नेता परस्पर लड़-झगड़ कर जीत की संभावनाएं गंवा बैठे. उस समय एग्जिट पोल के सर्वे छोड़ दें तो हर एक की समझ में आ रहा था कि हुड्डा परिवार का अहंकार कांग्रेस को डुबो देगा. इसके विपरीत महाराष्ट्र में सामने एक ऐसा गठबंधन था, जिसके नेता जमीन पर अपनी पैठ रखते थे. वहां कांग्रेस ही अपेक्षाकृत कमजोर थी. शरद पवार, जिन्होंने 1967 के बाद से कोई चुनाव नहीं हारा था, उद्धव ठाकरे जिनके पास बाल ठाकरे का उत्तराधिकार था. इसके बावजूद वे भाजपा गठबंधन को रोक नहीं पाए.

ऐसी जीत की कल्पना BJP को भी नहीं थी

भाजपा ने इस बार बहुत संभल कर कदम बढ़ाए. बड़ी आसानी से संविधान बदलने का मुद्दा भुला दिया गया और पिछड़ों को तवज्जो दी गई. मराठा क्षत्रप के रूप में भाजपा से विनोद तावड़े थे तो गठबंधन के साथी अजित पवार भी. पिछड़ों में एकनाथ शिंदे का साथ मिला ही. इसके अलावा भाजपा में पंकजा मुंडे पहले से मौजूद हैं. हिंदू समुदाय को जाति के आधार पर न बटने देने के लिए ‘एक हैं तो सेफ हैं’ का नारा खूब उछाला. साथ ही मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की ‘लड़की बहना योजना’ ने कमाल दिखा दिया. यही जादू चल गया और महाराष्ट्र में वह हो गया, जिसकी उम्मीद स्वयं भाजपा को नहीं थी. भाजपा के देवेंद्र फडणवीस ने ढाई साल पहले पार्टी का अनुशासन मानते हुए डिप्टी सीएम का पद स्वीकार कर लिया था. जबकि 2014 से 2019 के मध्य वे स्वयं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे. मजे की बात कि शिवसेना तोड़ कर आए एकनाथ शिंदे के पास भाजपा की तुलना में कम विधायक थे.

शरद दादा की पहली मात

यही तालमेल काम कर गया. भाजपा को वहां 132 सीटें मिल गईं. उसके बाद एकनाथ शिंदे की पार्टी शिवसेना (शिंदे) को 57 तथा अजित पवार की एनसीपी को 40 सीट मिल गईं. इस तरह एनडीए गठबंधन (महायुति) को कुल 230 सीटें हासिल हुईं. इसके विपरीत कांग्रेस गठबंधन महा विकास अघाड़ी मात्र 46 सीटें ही पा सकी. 288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में 13 निर्दलीय भी जीते हैं. उद्धव ठाकरे की शिवसेना को 20, कांग्रेस को 16 और शरद पवार की एनसीपी को 10 सीटें मिलीं. इस दौड़ में सबसे ज्यादा पिछड़े शरद पवार जबकि चुनाव प्रचार के दौरान अपनी परंपरागत सीट बारामती में उन्होंने कहा था कि यह उनका आखिरी चुनाव प्रचार है. अब वे किसी के लिए प्रचार नहीं करेंगे. शरद पवार के लिए बारामती में अपने प्रत्याशी को जिताना बहुत महत्त्वपूर्ण था. वहां उनके दूसरे भाई का पोता उनके गुट से लड़ रहा था और भतीजा अजित पवार अपने गुट की तरफ से.

‘एक हैं तो सेफ हैं’ का जादू चल गया

भाजपा गठबंधन सरकार की कुछ योजनाएं लोगों को अपील कर गईं. इनमें से प्रमुख रही लड़की बहन योजना. गरीब परिवार की महिलाओं के खाते में 1500 रुपए महीने जाने की योजना ने पूरा माहौल बदल दिया. महिलाओं में मतदान के समय का उत्साह देखने लायक था. केंद्र सरकार की वरिष्ठ नागरिक स्वास्थ्य योजना का लाभ भी मिला. किसानों के लिए मुफ्त बिजली, युवाओं के लिए इंटर्नशिप योजना आदि. इसके अतिरिक्त हिंदुओं को एक करने का प्रयास भी रंग लाया. उत्तर प्रदेश की तर्ज पर यहां नारा दिया गया, एक हैं तो सेफ हैं. उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने नारा दिया था, बटेंगे तो कटेंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसमें संशोधन किया और नया नारा आया, एक हैं तो सेफ हैं. पहले वाले नारे की शब्दावली सीधे-सीधे एक समुदाय को टारगेट करती थी. इससे कांग्रेस को यह कहने का सुभीता रहता कि भाजपा चुनाव में सांप्रदायिक मुद्दे ले कर ही आती है.

मराठा ताकत में अब वह दम नहीं

ऐसे कई कदम भाजपा के लिए वरदान रहे. साथ ही मराठा शक्ति की पोल भी खुल गई. पहले आम चुनाव से ले कर आज तक कांग्रेस मराठा ग्रंथि से बाहर नहीं निकल पाई. मगर भाजपा ने इस बार इसे तोड़ दिया. लोकसभा चुनाव में भाजपा अजित पवार को आगे कर मराठा लॉबी की ताक़त देख रही थी. कोई फ़ायदा नहीं हुआ मगर इस बार उसने ओबीसी जातियों पर भरोसा किया और उसे बम्पर जीत मिली. भाजपा के इस चमत्कार के पीछे रणनीतिकार देवेंद्र फडणवीस का योगदान अद्भुत था. उन्होंने कहा था, ”मैं आधुनिक अभिमन्यु हूं, चक्रव्यूह को भेदना जानता हूँ!” वे अपनी मुहीम में सफल रहे. अब असली मुद्दा है, मुख्यमंत्री का चयन. स्वाभाविक तौर पर इस पद के दावेदार देवेंद्र फड़नवीस हैं. राज्य में भाजपा को नम्बर वन पार्टी बना कर उन्होंने कमाल दिखाया है. इसके अलावा पार्टी आलाकमान का आदेश मानते हुए उन्होंने ढाई साल तक अपने क़द के प्रतिकूल जूनियर पद (उप मुख्यमंत्री का पद) संभाला था. ऐसे में उनका दावा प्रबल है.

हेमंत सोरेन ने भाजपा का रथ रोका

भाजपा ने उत्तर प्रदेश में शानदार प्रदर्शन किया. विधानसभा की 9 सीटों पर चुनाव थे. इसमें भाजपा ने 7 सीटें जीतीं. यहां तक कि मुस्लिम बहुल सीट कुंदरकी भी. सपा को सिर्फ दो सीटों पर संतोष करना पड़ा जबकि छह महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में वह टॉप पर थी. किंतु भाजपा का रथ रोका, हेमंत सोरेन ने. उन्होंने झारखंड में इंडिया गठबंधन को 56 सीटें दिलवा दीं. उनको अकेले 35 सीटें मिली हैं. कांग्रेस को 16 और आरजेडी को चार. उन्होंने यहां चुनाव स्वयं और पत्नी कल्पना के बूते लड़ा. उन्होंने भाजपा के दिग्विजयी रथ को रोका. भाजपा के सारे वार उन्होंने भोथरे कर दिए. हेमंत सोरेन ने जमीनी मुद्दे उठाए जबकि भाजपा वहां परंपरागत रूप से घुसपैठियों का मुद्दा उठाती रही. अकेले दम पर हेमंत की यह दृढ़ता उन्हें नायक बनाती है.

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