Political – धनकटी आंदोलन, साहूकारों से दुश्मनी, पिता की हत्या के बाद कैसे आदिवासियों की आवाज बन गए शिबू सोरेन- #INA
तारीख 19 जुलाई और साल था 2004 का. मनमोहन सरकार के बने हुए अभी दो ही महीने हुए थे कि जामताड़ा के न्यायिक मजिस्ट्रेट एके मिश्रा की तरफ जारी एक वारंट ने सरकार की टेंशन बढ़ा दी. यह वारंट था- सरकार के केंद्रीय मंत्री शिबू सोरेन की फरारी का. शिबू सोरेन उस वक्त केंद्रीय कोयला मंत्री थे.
लुटियंस दिल्ली में वारंट की सुगबुगाहट जैसे ही शुरू हुई, वैसे ही शिबू सोरेन अंडरग्राउंड हो गए. अंडरग्राउंड होने की आदत उन्हें आंदोलन से मिली थी. आंदोलन झारखंड को बिहार से अलग करने की. आंदोलन महाजनी प्रथा के खिलाफ लड़ने की.
शिबू सोरेन के सार्वजनिक जीवन की शुरुआत 1957 के आसपास शुरू होती है. उस वक्त सोरेन 13 साल के थे. कहा जाता है कि शोषण से परेशान होकर सोरेन उस वक्त महाजनों के खिलाफ बिगुल फूंकने का फैसला किया. इस आंदोलन का नाम दिया- धनकटी आंदोलन.
धनकटी आंदोलन से सियासी सफर की शुरुआत करने वाले शिबू सोरेन केंद्र में मंत्री, लोकसभा के सांसद और झारखंड के 3 बार मुख्यमंत्री बने. इस स्टोरी में दिशोम गुरु के नाम से मशहूर शिबू सोरेन की कहानी जानते हैं…
पुलिस से बोले- चलो शिबू से मिलवाता हूं, और फिर…
धनकटी आंदोलन जब उफान पर पहुंचा तो पुलिस ने शिबू सोरेन की खोज शुरू की. एक दिन पुलिस शिबू को पकड़ने उनके गांव पहुंची. गांव के रास्ते में शिबू से ही पुलिस के अधिकारी ने पूछ लिया कि क्या तुम शिबू सोरेन को जानते हो? शिबू बोले- हां, चलिए गांव में मिलवाता हूं.
पुलिस जब गांव पहुंची तो शिबू ने महिलाओं को एकजुट कर विरोध करवा दिया. महिलाओं की संख्या को देखते हुए पुलिस को जान बचाकर भागनी पड़ी. कहा जाता है कि इसके बाद पुलिस के अधिकारी शिबू सोरेन की फोटो लेकर चलने लगे.
पिता की हत्या के बाद आंदोलन में कूदे, दिशोम गुरु बने
संयुक्त बिहार के रामगढ़ में जन्मे शिबू सोरेन अपने भाई राजा राम के साथ रामगढ़ जिले के गोला प्रखंड के एक स्कूल में रहकर पढ़ाई किया करते थे. शिबू सोरेन के पिता शोबरन सोरेन उस वक्त के पढ़े- लिखे युवाओं में से एक थे, और वो पेशे से एक शिक्षक थे. बताया जाता है कि उस वक्त उनके इलाके में सूदखोरों और महाजनों का आतंक रहता था. महाजन और सूदखोर जरूरत प़ड़ने पर गरीबों को धन देते और फसल कटने पर डेढ़ गुना वसूलते. इतना ही नहीं अगर कोई गरीब उसे न चुका पाता तो वो खेत अपने नाम करवा लेते थे.
बताया तो ये भी जाता है कि उस दौरान शोबरन की बुलंद आवाज के चलते महाजनों और सूदखोरों में डर बना रहता था. एक बार तो उन्होंने एक महाजन को सरेआम पीटा भी दिया था. यही वजह था कि महाजनों के आंख की किरकिरी बन गए थे. एक दिन शोबरन अपने बेटे को लिए राशन लेकर हॉस्टल जा रहे थे, तभी रास्ते में उनकी हत्या कर दी गई.
शिबू इसके बाद ही आंदोलन में कूद गए. शिबू ने इसके बाद महाजनी आंदोलन चलवाया. इस आंदोलन में महिलाओं के हाथ में हसिया रहती और पुरुषों के हाथ तीर-कमान. महिलाएं जमींदारों के खेतों से फसल काटकर ले जाती. मांदर की थाप पर मुनादी की जाती, जबकि पुरुष खेतों से दूर तीर-कमान लेकर रखवाली करते. ऐसे में जमींदारों ने कानून व्यवस्था की मदद ली. इस आंदोलन में कई लोग भी मारे भी गये. जिस वजह से शिबू सोरेन को पारसनाथ के घने जंगलों में भागना पड़ा. हालांकि उन्होंने आंदोलन बंद नहीं किया. शिबू पारसनाथ के घने जंगलों में छिपकर प्रशासन को खूब चकमा दिया करते थे.
आंदोलन के जरिए शिबू सोरेन ने भूमि अधिकारों, मजदूर वर्ग के अधिकारों और सामाजिक न्याय की बात की. बाद में यह आंदोलन कई इलाकों में फैल गया था. धनकटी आंदोलन न केवल आदिवासियों के आत्म-सम्मान को बढ़ावा देने वाला था बल्कि उन्हें अपने हक के लिए लड़ने का साहस भी मिला.ये आदिवासी संस्कृति और पहचान की रक्षा का भी प्रयास था. धनकटी आंदोलन की वजह से बिहार सरकार बैकफुट पर आई और महाजनी प्रथा को लेकर सख्त कानून बनाने की घोषणा की.
धनकटी आंदोलन ने शिबू सोरेन को आदिवासियों का नेता बना दिया और बाद में इसी के चलते आदिवासियों ने उन्हें दिशोम गुरु की उपाधि दी. “दिशोम” का मतलब होता है “जंगल” या “भूमि” और यह आदिवासी संस्कृति में एक गहरा संबंध रखता है. दिशोम गुरू का मतलब हुआ जंगल या जमीन का नेता.
झारखंड आंदोलन में आए, खुद की पार्टी बनाई
धनकटी आंदोलन के जरिए महाजनी शोषण के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंकने वाले शिबू सोरेन बांग्लादेश की आजादी आंदोलन से खूब प्रभावित हुए. 4 फरवरी 1972 को शिबू सोरेन, बिनोद बिहारी महतो और कॉमरेड एके राय, तीनों बिनोद बिहारी के घर पर मिले. इस बैठक में तीनों ने सर्वसम्मति से तय किया कि बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी की तर्ज पर झारखंड मुक्ति मोर्चा नाम के एक राजनीतिक दल का गठन किया जाएगा, जो अलग झारखंड राज्य की मांग को लेकर संघर्ष करेगा.हालांकि झारखंड राज्य के लिए पहले भी मांग होती रही थी लेकिन झामुमो के गठन के बाद इसमें तेजी आई.
1977 में चुनाव हुए. पहली बार लोकसभा चुनाव में शिबू सोरेन ने दुमका सीट से भाग्य आजमाया, लेकिन उनके हाथ असफलता लगी. इस चुनाव में भारतीय लोकदल के बटेश्वर हेंब्रम से शिबू सोरेन हार गए.
1980 में पहली बार दुमका से सांसद बने. इसके बाद उन्होंने साल 1986, 1989, 1991 और 1996 में लगातार जीत हासिल की. 1998 के लोकसभा चुनाव में उन्हें भाजपा के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी से हार का सामना करना पड़ा. जिसके चलते शिबू सोरेन ने अगले चुनाव में अपनी पत्नी रूपी सोरेन को चुनाव लड़ाया, लेकिन उन्हें भी बाबूलाल मरांडी से हार का सामना करना पड़ा.
साल 2004, 2009 और 2014 में वे फिर से दुमका संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतने में सफल रहे. इस प्रकार कुल मिलाकर आठ बार शिबू सोरेन दुमका से लोकसभा का चुनाव जीतने में कामयाब रहे.
शिबू इस दौरान केंद्र की नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री बने.
रिश्वत कांड में फंसे, दलील दी- झारखंड के लिए किया
1991 के चुनाव में शिबू सोरेन की पार्टी को झारखंड की 4 सीटों पर जीत मिली. इसी चुनाव में कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी तो बनी, लेकिन उसे बहुमत नहीं मिला. जोड़तोड़ के बूते कांग्रेस सत्ता में आ गई, लेकिन 1993 में नरसिम्हा राव के खिलाफ आए अविश्वास प्रस्ताव ने पार्टी की टेंशन बढ़ा दी.
कहा जाता है कि इसी अविश्वास प्रस्ताव से बचने के लिए राव की सरकार ने पैसे बांटे. यह पैसे झामुमो के चार सांसदों को दिए गए. 1995 में झामुमो से बीजेपी में आए सांसद सूरज मंडल ने इसका खुलासा किया था. उस वक्त देश की राजनीति में हलचल मच गई थी.
मामले की सीबीआई जांच सौंपी गई. इसी बीच शिबू सोरेन सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि संसद के भीतर की कार्यवाही पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है.
साल 2000 में दिल्ली हाईकोर्ट ने पूरे मामले में सूरज मंडल के बयान को सही नहीं माना. इस पूरे कांड को सियासत में कैश फॉर वोट कांड नाम से जाना जाता है. शिबू जब झारखंड लौटे तो उन्होंने दलील देते हुए कहा कि हमने सरकार को इसलिए समर्थन दिया. क्योंकि हमें अलग झारंखड की जरूरत थी.
अब कहानी उस वारंट की, जिससे मनमोहन टेंशन में आए
17 जुलाई, 2004 को जामताड़ा उप-विभागीय न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत ने शिबू सोरेन पर गैर जमानती वारंट जारी किया था. तब शिबू सोरेन मनमोहन की सरकार में कोल मिनिस्टर थे. इस पूरा मामला को समझने के लिए हम आपको तीस साल पीछे ले चलेंगे.
दरअसल 23 जनवरी 1975 को बांसपहाड़ी, रजैया, चिरूडीह, तरणी, मुचियाडीह, रसियाभीठा एवं अन्य जगहों पर नदी के किनारे घातक हथियार एवं बंदूक से लैस होकर बलवा करने के उद्देश्य से लोग जमा हुए थे. इस नरसंहार में 11 लोगों की हत्या कर दी गयी थी. इस नरसंहार के बाद कई आरोपी फरार हो गए थे. जिसमें एक नाम शिबू सोरेन का भी बताया जाता है.
जब 17 जुलाई 2004 को जब जामताड़ा उप-विभागीय न्यायिक मजिस्ट्रेट ने शिबू सोरेन पर गैर जमानती वारंट जारी किया था, तब वो अंडरग्राउंड हो गए थे. उसके बाद उनको झारखंड हाईकोर्ट ने 2 अगस्त 2024 तक सरेंडर करने का आदेश दिया. तब जाकर वो 30 जुलाई को मीडिया के सामने हाजिर हुए. फिर 2 अगस्त 2024 को झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन ने अपने आप को जामताड़ा जिला सत्र न्यायालय के सामने आत्मसमर्पण किया था. इसी के चलते उनको अपना मंत्री पद भी गवाना पड़ा था. हालांकि उसी दिन उनको झारखंड हाईकोर्ट ने सशर्त जमानत दे दी थी.
3 बार सीएम बने पर कार्यकाल नहीं कर पाए पूरा
साल 2005 में झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो बीजेपी और जेडीयू के गठबंधन को 36 सीटें मिली, जो बहुमत के आंकड़े से 5 सीट कम थी, जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस के गठबंधन को 26 सीटें मिली. इस चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था.
ऐसे में खंडित जनादेश मिलने के बाद भी राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने तत्कालीन केंद्रीय कोयला मंत्री शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी, लेकिन वो बहुमत साबित करने में नाकाम रहे. लिहाजा 10 दिनों के भीतर ही उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी और उनकी जगह बीजेपी के नेता अर्जुन मुंडा को सीएम बनाया गया था.
उसके बाद दूसरी बार शिबू सोरेन 2008 में मुख्यमंत्री बने, लेकिन जब मुख्यमंत्री बने तो उस वक्त वो विधायक नहीं थे. ऐसे में शिबू सोरेन तमाड़ सीट से विधायकी का चुनाव लड़े, लेकिन उन्हें निर्दलीय उम्मीदवार राजा पीटर के हाथों हार का सामना करना पड़ा.
इस वजह से उन्हें सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी. साल 2009 में वो तीसरी बार भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से फिर मुख्यमंत्री बने, लेकिन इस बार भाजपा से अंदरूनी खींचतान के चलते उन्हें कुछ ही महीनों के भीतर मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा.
फिलहाल उनके बेटे हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री हैं. लेकिन यह भी एक विडंबना ही कही जाएगी कि जिस नेता ने झारखंड राज्य की लड़ाई सबसे मजबूती से लड़ी, उसे कभी पूर्ण कार्यकाल के लिए सीएम बनने का मौका नहीं मिल सका.
दुर्गा के बाद हेमंत सोरेन को सौंप दी गद्दी
हेमंत सोरेन शुरुआत में राजनीति से दूर थे, क्योंकि वो पढ़- लिखकर इंजीनियर बनना चाहते थे. यहां तक की उनका एडवांस कोर्स करने के लिए विदेश में एडमिशन भी फाइनल हो गया था, लेकिन उनके पिता शिबू सोरेन उन्हें नहीं जाने दिया.
वो चाहते थे कि हेमंत उनकी मदद करे. बाद में हेमंत ने 2003 में छात्र राजनीति से अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया था, जबकि उनके बड़े भाई दुर्गा सोरेन पहले से ही पार्टी को आगे बढ़ा रहे थे.
साल 2009 में दुर्गा के असामयिक निधन के कारण पार्टी और परिवार की पूरी जिम्मेदारी हेमंत पर आ गई. इधर बीमारी और बढ़ती उम्र ने शिबू सोरेन को राजनीति से किनारा करने के लिए मजबूर कर दिया. इसके बाद साल 2013 में हेमंत कांग्रेस और आरजेडी की मदद से राज्य के पांचवें सीएम बने.
परिवार के बिखराव का भी सामना करना पड़ा.
बीच की अवधि में शिबू सोरेन दो बार राज्यसभा के भी सदस्य रहे और इसके साथ ही साल 1984 में वे जामा विधानसभा से एक बार विधायक भी रहे. बाद में शिबू सोरेन ने यह सीट अपनी बड़ी बहू सीता सोरेन को सौंप दी.
हालांकि, सीता सोरेन 2024 के चुनाव से पहले झामुमो छोड़ बीजेपी में चली गई. शिबू सोरेन के परिवार में यह पहली बड़ी टूट थी.
इनपुट- धीरज पांडे
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