अब आपकी बारी
अमरदीप नारायण प्रसाद
*अब आपकी बारी है*
कोई दिखाता है प्रलय का डर मुझे।
कोई कयामत की फिकर करवा रहा।
होश से बेहोश और मदहोश हम।
काल के मुंह ख़ुद को समाए जा रहा।
भड़भड़ा कर गिर रहे वटवृक्ष, पीपल।
और गमलों की फिकर कर जी रहे।
आधुनिक संयंत्र का माला पिरो।
विष सदृश तपती हवा को पी रहे।
खाक हो जाए जगत मैं क्या करूं।
वाहनों में बैठ धुंध उड़ेलते।
फिर हमीं कहते हैं प्रकृति क्या करूं।
नित नए विष पर्यावरण में घोलते।
नाम दे विध्वंस को शहरीकरण।
जाम दे ब्रह्मांश को बीजीकरण।
ये घूमती दुनिया में भौतिकीकरण।
फिर कह रहे क्यों तप रही धरती ये है।
क्यों इस कदर ये नभ धधकता दिख रहा।
छोड़ कर परिवेश प्रकृति ने बुना जो।
चढ़ अहं अट्टालिका पर ।
कह रहे हैं सृष्टि जाती अंत को।
मैंने जो जाना और समझा आज तक ।
महफ़िल मनुष्यों की लगाना खास है।
छोड़ दें जिस इष्ट को हम जप रहे।
मोड़ लें गंतव्य जो हम जा रहे।
दें पुनः जीवन पसरने वृक्ष का।
विस्तृत करें चहुं ओर अपने वन सघन।
खत्म होंगे पाप औ बढ़ते मिलेंगे पुण्य।
हम ही हैं बस हम ही हैं पूर्ण एवम् शून्य।
अब देखना है हो सकेंगे क्या सफल?
मैंने तो निश्चय कर लिया है!
आपकी बारी है अब।
कुन्दन कुमार कात्यायन
शोधार्थी
राजनीति विज्ञान विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा